पिछले 13 दिसंबर से लगातार मैं शाहजहांपुर खेड़ा बॉर्डर पर चल रहे किसान आंदोलन में शामिल होकर नज़दीक से किसान आंदोलन की ताकत को महसूस कर रहा हूँ, कई उतार चढ़ाव आये, कई बार ऐसा लगा कि अब यह आंदोलन टूटकर बिखर जाएगा पर अगले ही पल मैंने इस आंदोलन को एक नई ऊर्जा के साथ खड़े होते देखा है। मुझे लगता है मेरी आने वाली पीढ़ियों, बच्चों, पोते-पोतियों को सुनाने के लिए बहुत सारी सच्ची क्रांतिकारी कहानियों का संग्रह मैंने संजो कर रख लिया है। जैसे ही मुझे लगता है अब इससे ज़्यादा कुछ यहाँ नहीं मिलेगा तभी अचानक कुछ ऐसा होता है जो फिर से रोंगटे खड़े कर देता है और एक नई ऊर्जा का संचार करता है।
अभी पिछले 10 दिन का घटनाक्रम ही देख लीजिए। जहा एक ओर कोरोना के डर की वजह से लोग घर से निकल भी नहीं पा रहे है, यहाँ पर किसानों ने पूरा गांव बसा कर इस जगह को ही अपना घर बना लिया है, शायद ऐसे ही भूतकाल में सभ्यताएं एक जगह से चल कर दूसरी जगह विकसित हुई होंगी।
अभी की घटना है। सभा चल रही थी और मैं भी उस सभा को हमेशा की भाँति वहीं पास बैठा सुन रहा था। बहुत तेज गर्मी पड़ रही थी और पास में बैठे एक बुजुर्ग अपने गमछे से बार-बार अपना पसीना पोंछ रहे थे। ये कोई नई घटना नहीं थी। रोज़ इसी तरह की गर्मी से यहां पर किसान दो-दो हाथ हो रहे थे। इस दिन भी ऐसे ही लग रहा था कि थोड़ी देर में छाया हो जाएगी और थोड़ा आराम मिलेगा। लेकिन तभी अचानक से बहुत तेज आंधी आने लगी। ऐसे मौक़े पर लगा जैसे कि सभी जान बचा कर अपने तम्बूओ में चले जाएंगे क्योंकि सभास्थल के तम्बू फटने लग गये थे ओर लोहे के पाइप जिन पर उन तम्बू को लगाया गया जमीन से उखड़ कर ऊपर उठने लगे थे ओर हवा में उड़ने लगे थे।खम्भें हवा का दबाव संभाल नही पा रहे थे, और साथ ही तूफान की आहट भी हो गई थी। सारे लोहे के पाइप गिरने लग गये थे और ऐसा लग रहा था कि पूरा सभा स्थल अभी कुछ ही समय में धराशायी होने वाला था। लेकिन तभी अचानक से में देखता हूँ कि एक बुजुर्ग ने गिरते हुए लोहे के पाइप को दोनों हाथों से कसकर पकड़ लिया, मानो वो बुजुर्ग अपने हौसले को उस आंधी से लड़ा रहा था। यह देखते ही बहुत सारे युवा व अन्य किसान दौड़ कर आए और सभा स्थल के हर पाइप को पकड़ कर खड़े हो गए। आंधी बहुत तेज चल रही थी और पाइप ज़मीं से उखड़ रहे थे पर सभी किसानों ने आंधी के चले जाने तक मोर्चा संभाले रखा। बिना इस बात की परवाह किये कि इस दौरान उन्हें चोट भी लग सकती थी। जब आंधी शुरू हुई थी और सभा स्थल तम्बू उखड़ने लगा था तब मैं सोचने लगा था कि अब शायद इस गर्मी ,आंधी-तूफान का किसान सामना नहीं कर पाएंगे और अपने घर लौट जाएंगे, पर यह सब जो मैंने देखा उससे एक बात और तय हो गई कि चाहे आंधी आए, या तूफ़ान आयें, सरकार की गोलियां आए या बम आए, इन किसानों के हौसले को कोई नहीं तोड़ पाएगा। और इतिहास का यह सबसे बड़ा आंदोलन पूरी दुनिया के लिए एक मिसाल कायम करेगा।
इसके बाद कई बार आँधी आई, तूफ़ान भी आया, तम्बू भी उखड़े, सामान भी ख़राब हुआ पर देखते ही देखते कुछ घंटों में वापस सब कुछ व्यवस्थित कर लिया गया। मानो कि किसान हिटलर की आँखों में आँखें डालकर कह रहे हो कि “सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है ज़ोर कितना बाजु-ए-क़ातिल में है!”