अभिज्ञान
छात्र कई बार इस गलतफहमी में रहते है की विचारधारा, आधार और राजनीतिक ताकत के रूप में सिर्फ छात्र राजनीति में ही बाक़ी रही है। जमीनी राजनीति से अनवरत निराशा का भाव पर तो सवाल उठता है जब जन आंदोलनों की समितियों की मीटिंग में क्रांतिकारी बदलावों पर हो रही चर्चाओं को आप सुनते है। आपकी यह गलतफहमी, और उनकी ग़ैर ज़रूरी प्रदर्शन करने की आदत पर आप ठिठककर सोचते है। संयुक्त किसान मोर्चा, जो संभवतः कॉरपोरेट हिंदुत्व फासीवादी सरकार के खिलाफ सबसे बड़े और कारगर आंदोलन का नेतृत्व कर रही है, ने मेरी ऐसी ही गलतफहमियों को दुरुस्त किया।
जब हम सिंघु मोर्चे पर बमुश्किल पहुँचे, वहाँ मंच किसान संगठनों, लाल तमग़ें लगाए मजदूर संगठनों, महिला संगठनों, टीचर, छात्र और युवा संगठनों के सैंकड़ों लोग बैठे थे। सभा शुरू हो चुकी थी और “भारत बंद’ के आह्वान को सफल बनाने के लिए योजना पर बात हो रही थी। जैसे कि माना जाता है कि साम्राज्यवाद को सबसे बड़ा दुश्मन मानने की बात कहीं अकादमिक जगत में खोकर रह गई है। सभा के पहले ही वक्ता ने कृषि कानूनों के मूल में वर्तमान मोदी सरकार को ही नहीं, बल्कि परे जाकर 1991 के जनरल एग्रीमेंट ऑन ट्रेड और टैरिफ को जिम्मेदार बताया। ट्रेड यूनियन से सम्बद्ध अगले वक्ता ने कहा की किस तरह लॉकडाउन के दौरान श्रम कानून में हुए बदलावों की वजह से जनतंत्र और समाजवाद की लड़ाई कितनी पिछड़ गई जबकि इस बदलाव के ख़िलाफ़ तो एक जैन आंदोआँ खड़ा हो जाना चाहिए था। आंदोलन में महिलाओं की भागीदारी के सवाल को महिला संगठनों ने उठाया जिसे मोर्चे के नेताओं ने माना अपनी कमी के तौर पर माना।
विभिन्न मुद्दों के बीच बात करते हुए इस बात पर सहमति बनी कि संघर्ष कृषि क़ानूनों से काफ़ी बड़ा है। किसान नेताओं ने भी बैंकों और सार्वजनिक कंपनियों के निजीकरण, नई शिक्षा नीति के खिलाफ बोला। इस बात पर भी एकराय बनी की ना सिर्फ़ भाजपा बल्कि अन्य दल भी जो पूँजीवादी व्यवस्था के एजेंट के रूप में काम कर रहे है, उन सबको नकारकर भारत को क्रोनी पूंजीवाद के चंगुल से बचाना हमार अंतिम लक्ष्य है। जब मैं मंच पर ऑल इंडिया स्टूडेंट्स एसोसिएशन (आइसा) की तरफ से बोलने गया तो मैं अवाक रह गया। मुझे नहीं समझ आया कि जिन लोगों ने एक पूरी पीढ़ी को के दिखाया है कि आंदोलन कैसे किया जाता है, उनसे मैं क्या बोलूं? बस मैं अपनी तरफ से आंदोलन के प्रति एकजुटता दिखाकर यही बोल पाया कि जब तक वो सीमाओं पर आंदोलन लड़ रहे हैं, दिल्ली के छात्र, अध्यापक, मजदूर और सभी नागरिक उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े रहेंगे।
संयुक्त किसान मोर्चा ने एक नफरत और कारपोरेट लूट के खिलाफ धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद और संविधान सम्मत लोगों का एक मोर्चा खड़ा किया है। जब आप ऐसे लोगों को एक साथ देखते है जो, आंदोलन के बिना शायद ही कभी एक मंच पर साथ आए, तो आपको एक उम्मीद बंधती है। आप देखते है कि एक बुजुर्ग पगड़ीधारी अपना खाना बीकानेर से आए किसी साथी के साथ बाँटता है, अनजान लोग एक–दूसरे से ऐसे खाना–पानी बाँटते है जैसे बरसों का याराना हो। इससे देश–समाज जिंदा महसूस होता है। एक बस में बैठे सैकड़ों लोगों में कुछ भी उन्हें एक–दूसरे से नहीं जोड़ता। वे सब अपने दुख–सुख और संघर्ष में जीते है। लेकिन वो साथ उन्हें जोड़ता है। इसी तरह संयुक्त किसान मोर्चा आंदोलन एक बस की तरह है, जो हरेक देशवासी को इस तरह जोड़ता है, जिसका भान भी हमें शायद ना हो। यह हमें नफरत गर्दी से एकता की और ले जा रहा है।