अमृत राज
एक जमाने में दक्षिणी अमेरिकी महाद्वीप प्राकृतिक संपदाओं का भंडार हुआ करता था। वहाँ के मेहनतकश किसान अपने ज्ञान और मेहनत से ज़मीन की उर्वरता का बड़ा ही कुशल प्रबंधन करते थे। पहले उपनिवेशवाद ने और अब नव–उदारवादी नीतियों ने दक्षिणी अमेरिकी किसानों और उनकी ज़मीनों को आज दयनीय स्थिति में ला छोड़ा है। पिछले 300 सालों से दक्षिणी अमेरिकी किसान, यूरोप और उत्तरी अमेरिका के बाज़ार की ज़रूरत को अपने खून पसीने से पूरा करते आ रहें हैं। फिर भी वे ग़रीबी और बदहाली में जीने के लिए अभिशप्त हैं। इतनी उपजाऊ ज़मीन होने के बावजूद उनकी बदहाली का कारण क्या है? उनकी इस हालत का कारण है “ कृषि का निजीकरण”।
हम आज एक ऐसे दौर में ज़ी रहें हैं जहां पर्यावरण से सम्बंधित समस्याओं ने एक विकराल रूप धारण कर लिया है। कोरोना वाइरस इसका जीता जागता उदाहरण है।निजी कम्पनियों ने अपने फ़ौरी फ़ायदे के लिए प्रकृति के हितों की तिलांजलि दे दी है। जंगलों, पहाड़ों, नदियों तक का इन्होंने निजीकरण कर दिया है। इसी तर्ज़ पर चलते हुए और मुनाफा को विकास का पर्याय बना कर दक्षिणी अमेरिका की पूँजीपरस्त सरकारों ने खेती में निजी पूँजी को खुली छूट दी।इसके लिए सरकारों ने पहले पारम्परिक खेती को चौपट किया और फिर नए–नए क़ानूनों का हवाला देते हुए किसानों की ज़मीनों को निजी कम्पनियों के चंगुल में धकेल दिया।जिसके बाद मुनाफ़े की दर को दिन दुगुना रात चौगुना बढ़ाने के किए प्राइवेट कम्पनियों ने दक्षिणी अमेरिका के प्राकृतिक ताने–बाने को पूरी तरह से कुचल कर रख दिया।
बीज पर से किसानों के खत्म हुए अधिकार के परिणाम पर्यावरण का संकट !
कृषि का निजीकरण उस विस्तृत मॉडल का हिस्सा है जिसके तहत शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन इत्यादि के निजीकरण को “विकास” समझा जाता है। यह एक ऐसा जाल है जो अपने लपेटे में धीरे–धीरे सब कुछ ले लेता है। दक्षिणी अमेरिका में अपने इस कु–चक़्र के जाल को फैलाते हुए निजी कम्पनियों ने बीज के उत्पादन पर अपना वर्चस्व जमाया और दलाल सरकारों पर दवाब बनाया कि पारम्परिक बीज के उपयोग पर पाबंदी लगा दी जाए। बीज के उत्पादन पे अगर नजर दौड़ाए तो हमें पता चलेगा की 10 बड़ी निजी कम्पनियों का इस पर कारोबार पर एकाधिकार है। उसमें भी शीर्ष की तीन बड़ी कंपनियाँ – मॉन्सैंटो (Monsanto), डूपांट पाइनीयर ( DuPont Pioneer) स्यंजेंट ( Syngenta)- लगभग आधे उत्पादन को नियंत्रित करते हैं। यह कम्पनियाँ जीएम बीज यानी कृत्रिम तरीके से बनाया गया फसल बीज तैयार करती हैं और किसानों को मार्केट तंत्र के तहत इसे ख़रीदने पर मजबूर करती है।
जब इन कम्पनियों ने दक्षिणी अमेरिकी मार्केट में अपनी पकड़ पूरी तरह जमा ली, तो फिर वो अपनी मनमानी करने लग गए।निजीकरण के इन हमलों के ख़िलाफ़ वहाँ के किसानों ने जम कर मोर्चा संभला और दुनिया को यह बता दिया कि पर्यावरण और किसानी को बचाने की लड़ाई सिर्फ़ कुछ अमीर देशों के अमीर संस्थाओं तक ही सीमित नहीं, जो कि सिर्फ़ कुछ निश्चित जगह को हरा–भरा रखने के लिए घड़ियाली आँसू बहाते रहते हैं। किसान यह बख़ूबी समझते हैं कि मनुष्य और पर्यावरण एक–दूसरे पर आश्रित हैं और खेती को बचाने की कोई भी लड़ाई उस पर निर्भर लोगों के आर्थिक और सांस्कृतिक हितों को नज़रंदाज़ करके नहीं की जा सकती है।
यहाँ पर उन संघर्षों का जिक्र करना ज़रूरी है जो दक्षिणी अमेरिकी किसानों ने बीज के निजीकरण के ख़िलाफ़ किए। 2013 में कोलम्बिया ( Colombia) के किसानों ने कृषि के निजीकरण के ख़िलाफ़ एक बड़ा जन आंदोलन खड़ा किया। सड़कों को जाम कर सरकार को बीजों के निजीकरण पे रोक लगाने के लिए ज़ोर डाला गया। कोलोमबिया की इस पूरे घटना क्रम को समझने के लिए हमें 2011 में सरकार के किए गए तुग़लकी फ़ैसले पर नज़र दौड़ानी होगी, जिसके तहत क़रीब 70 टन चावल को बर्बाद कर दिया था। वहाँ की सरकार का मानना था कि किसानों ने अनाज को “सरकारी नियमों” के तहत तैयार नहीं किया था।
2014 में निजी कम्पनियों के बढ़ते हमलों के ख़िलाफ़ दक्षिण अमेरिका के एक छोटे से देश चिले (Chile) के किसानों ने भी संघर्ष का बिगुल फूंका। 2012 में, जब ब्राज़ील की सरकार ने अपनी नीति में बदलाव करते हुए, निजीकरण को हरी झंडी दिखाई थी, तब लगभग 5000 किसानों ने मान्सैंटो के पेरणामबको प्रांत में स्थित फ़ैक्टरी पर क़ब्ज़ा कर लिया था। 1999 में कोस्टा रिका में बढ़ते किसान आंदोलनों के दबाब में सरकार को बीज के निजीकरण के फ़ैसले को वापस लेना पड़ गया था। मेक्सिको में मक्के के पारम्परिक फसल को बचाने के लिए भी किसानों ने कई लड़ाइयाँ लड़ी। वहाँ कि सरकार ने नए बीज उपलब्ध करने के नाम पर निजीकरण को किसानों पर लादने की कोशिश की थी और पारम्परिक बीज के उपयोग पर पाबंदी भी लगायी थी।इन घटनाओं से गुजर कर हमें पता चलता है कि जहां कहीं भी किसानों के हित पर हमला हुआ है किसानों ने उसका मुँह तोड़ जवाब दिया है।
भारत के किसानों का भी अपने परंपरागत बीज पर से नियंत्रण समाप्त हो गया है। जो नया बीज बहुराष्ट्रीय कंपनियों के द्वारा भेजा जा रहा है, उसमें ऐसी घास पतवार मिलाए जा रहे हैं जिनको मारने के लिए अलग से रासायनिक खाद और दवाइयां अनिवार्य है। परिणाम यह हो रहा है कि गांव के गांव नए घास व पतवार के हमले से तबाह हो रहे हैं। फसल की उपज तो बढ़ी लेकिन उसकी गुणवत्ता कमजोर हो गई। एक तरफ अनाज की अधिकता किसानों को परेशान किए हुए है, तो दूसरी तरफ उसका घटता गुणवत्ता आम जन को पौष्टिकता नहीं दे पा रहा है।
रासायनिक खाद का बढ़ता उपयोग प्रकृति के दूसरे मित्र बैक्ट्रिया और जीवों पर बुरा असर डाला है। इस तरह भारत के पर्यावरण को तबाह करने में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बीजों और खेती के तरीकों का बुरा असर पड़ा है। तो कल्पना कीजिए कि जब खेती बड़े व छोटे किसानों के बजाए निजी कम्पनियों के हाथ में चली जाएगी , जिनका खुद के उपजाए अनाज का भोजन से कोई संबंध नहीं है तब यह मुनाफा के लिए विकासमान खेती कितनी तबाही मचाएगी?
भारत में भी पिछले कई महीनों से जारी किसान–आंदोलन ने अपने जुझारू संघर्ष से हुकूमत को यह बता दिया है की जब तक तीनों जनविरोधी कृषि क़ानून वापस नहीं किए जाते, वो दिल्ली बॉर्डर से नहीं उठेंगे। इन काले क़ानूनों में सरकारी मंडी के बदले निजी मंडी को तरजीह दी गयी है। खेती को निजी हाथों में सौंपने की तैयारी की जा रही है। किसानों को कंपनियों द्वारा तय शर्तों पर चलना होगा और शोषण–उत्पीड़न के चक़्रव्यूह में फँस धीरे–धीरे कर वे अपने ज़मीन पर मालिकाना हक़ खो देंगे।
भविष्य में निजी कम्पनियों की मनमानी और गुंडागर्दी के ख़िलाफ़ किसान कोर्ट का दरवाज़ा भी नहीं खटखटा पाएँगें। सरकारी दमन और गोदी मीडिया के झूठे फ़सानों के बीच, किसानों की यह ऐतिहसिक लड़ाई, आर्थिक माँगों से आगे बढ़कर एक राजनीतिक लड़ाई में तब्दील हो चुकी है।आने वालों दिनों में भारत का यह किसान आंदोलन देश की राजनीति की दिशा निर्धारित करने में एक निर्णायक भूमिका अदा करने वाला है।