न्यूज़ की सुर्ख़ियों और मध्यमवर्गीय जनता की नज़र में, किसान तब तक नहीं आते, जब तक आत्महत्या के आँकड़ों पर बहस ना छिड़ी हो। “जय जवान जय किसान” वाले देश में, जवानों पर तो खूब चर्चा होती रही है, पर ऐसे बहुत कम उदाहरण रहें हैं, जब किसानों और उनकी माँगों को, टीवी डिबेट में उचित जगह मिली हो। न्यूज़ चैनल पर हो रहे बहस, किसानों पर औपचारिक चर्चा और मगजमारी के बाद, अक्सर, हिंदू–मुस्लिम या चीन–पाकिस्तान सरीखे, राजनीतिक पिंडों का चक्कर काटने में लग जाते हैं और किसान और उनके मुद्दों को जान–बुझकर दरकिनार कर दिया जाता है।
पर पिछले कुछ महीनों से, फिर से एक बार, किसान न्यूज़ की हेड्लायन में हैं और इस बार चर्चा में है तीन काले क़ानूनों के ख़िलाफ़ उनका जुझारू आंदोलन। वैसे हर बार की तरह इस बार भी, मीडिया के एक हिस्से ने, किसानों को ख़ालिस्तानी क़रार दे कर (जैसा कि वो अन्य आंदोलनों के साथ भी करते आए हैं), उन्हें बदनाम करने की असफल कोशिश ज़रूर की है।लेकिन, इस बार उन्हें ईंट का जवाब पत्थर से मिला है और किसान आंदोलन पर हुई रिपोर्टिंग ने, मीडिया का गिद्धनुमा चेहरा जगज़ाहिर कर दिया है।
कृषि संकट आज एक स्थाई संकट का स्वरूप ले चुका है। क़र्ज़ में डूबे, छोटे और सीमांत किसनों के हाथ से ज़मीन, लगातार फिसलती जा रही है।खेती–किसानी कर अब जीवन–यापन करना बहुत मुश्किल हो चला है।सरकार ने भी समाधान के नाम पर, किसानों के तरफ़ सिर्फ़ जुमले फेकें हैं। चुनाव के पहले, मौजूदा सरकार ने किसानों की आमदनी दुगुनी करने का वायदा किया था। पर आज आलम यह है कि, अपने वायदे के ठीक उलट, सरकार प्रो–कॉरपोरेट कृषि कानूनों को लागू करने पर अड़ी हुई है। इन क़ानूनों के लागू होते हीं, धीरे–धीरे किसान का, अपनी ज़मीन पर से मालिकाना हक़ समाप्त हो जाएगा और वो कॉरपोरेट के ग़ुलाम मात्र रह जाएँगे। कोरोना महामारी का आड़ ले कर, दुनिया भर के निरंकुश सरकारों ने, किसान–मजदूर विरोधी कई सारे सुधारों को कानूनी जामा पहनाने की कोशिश की है।इनका मक़सद, कोरोना पर लगाम लगाना नहीं बल्कि उन आंदोलनों पर नकेल कसना है जो इस तरह के प्रो–कॉरपोरेट सुधारों का विरोध कर रहें है। जहां तक, भारत में हो रहे कृषि सुधार की बात करें तो हम पाएंगे कि इन्हें पार्लियामेंट में बिना उचित बहस और वोटिंग के ही, एक मनमाने तरीके से, जबरन पास करा लिया गया था। वैसे भी अब, भारत को अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं “इलेक्टोरल डेमोक्रेसी” की जगह “इलेक्टोरल ऑटोक्रेसी” कहना जायदा पसंद करती हैं।
सरकार द्वारा किए गए संशोधनों की माने तो, ए॰पी॰एम॰सी॰ क़ानून को समाप्त करना एक बड़ा कदम हैं, क्यूँकि इससे उपज को भारत के किसी भी कोने में आसानी से बेचा जा सकता है। ठीक इसी तरह की बात तब की गयी थी जब बिहार में ए॰पी॰एम॰सी॰ को खत्म किया गया था। बिहार में ए॰पी॰एम॰सी॰ के ख़त्म होने के बावजूद, किसानों की दशा में कोई सुधार नहीं आया है और यही हाल अब बाकी राज्य के किसानों का होने जा रहा है। इसके अलावा, नए कृषि क़ानून कॉंट्रैक्ट फ़ार्मिंग को भी बढ़ावा देगें। आवश्यक वस्तु अधिनियम में भी महत्वपूर्ण बदलाव किए गए हैं, जिसके परिणामस्वरूप जमाख़ोरी को बढ़ावा मिलेगा।
नवउदारवादी नीतियों के समर्थक अर्थशास्त्री “एक देश एक बाज़ार” के नारे के साथ, इन सुधारों की तुलना 1991 में, मनमोहन सिंह द्वारा किए गए बदलावों से कर रहें है। उनका मानना है कि, जब तीनों कृषि क़ानून के तहत कृषि निजी हाथों में चली जाएगी, तब किसानों को इसका सीधा लाभ मिलेगा। पर शायद वो इस बात से अनभिज्ञ हैं कि, किसानों के लिए सबसे महत्वपूर्ण होता है उनकी जमीन। जब उनके पास, उनकी जमीन ही नहीं बचेगी, तो फिर उनका मुनाफा कैसे होगा? मुनाफ़ा तो सिर्फ उन बड़ी निजी कंपनियों का होगा, जो धीरे–धीरे किसानों के जमीन के मालिक बन जाएंगे। नए कृषि क़ानून से, कृषि के केंद्रीकरण को बढ़ावा मिलेगा। धीरे–धीरे किसानों की सारी ज़मीन निजी कम्पनियों के हाथों में केंद्रीयकृत हो जाएगी। सारी तैयारी कृषि क्षेत्र को– रिलायंस रीटेल, अदानी विल्मार, मॉन्सैंटो, कार्गिल जैसी बड़े मल्टीनेशनल शार्क के हाथों में देने की है।
इस लिहाज़ से, कई महीनों से चल रहे किसान आंदोलन की ऐतिहासिक भूमिका बढ़ जाती है। जो प्रगतिशील लोग/पार्टी इस आंदोलन को– न्यूनतम समर्थन मूल्य के लिए या सिर्फ़ बड़े किसानों के आंदोलन के रूप में देख रहे हैं वो भूल रहें हैं की, यह कृषि क़ानून सिर्फ़ एक आगाज भर है। आने वाले दिनों में सरकार, कृषि के निजीकारण के लिए और भी दूसरे कदम उठाएगी। उनका सीमित अर्थवादी नजरिया, इस आंदोलन के राजनैतिक महत्व से उनको रूबरू नहीं होने दे रहा है।कृषि कानूनों के दूरगामी प्रभावों को हम तब तक नहीं समझ सकते जब तक कि, हम इन्हें श्रम सुधारों के साथ रख कर अध्ययन ना करें। आज जब वित्त पूंजी तथा एकाधिकार पूंजी के गठबंधन की मार किसान सीधे–सीधे झेल रहे हैं और वे एक फासीवादी राज्य के खिलाफ सड़कों पर मोर्चा ले रहे हैं, तो इस आंदोलन का यंत्रिक विश्लेषण बहुत खतरनाक है। यह यंत्रिक विश्लेषण और अर्थवादी नज़रए का ही परिणाम है कि, अपने को प्रगतिशील/ क्रांतिकारी समझने वाले यह लोग/पार्टी, आम मेहनतकश आबादी को किसान आंदोलन से अलग–थलग करने पर आमादा हैं।
भविष्य में, खुद की जमीन छिन जाने के बाद, किसान अपने ही खेतों में मजदूरी करने के लिए अभिशप्त हो जाएंगे। सरकार द्वारा हाल ही में किए गए श्रम सुधार वहाँ उनका और तीव्र शोषण करने के लिए इंतज़ार कर रहे होंगे। कृषि का निजीकरण, अपनी कोख में, पर्यावरण को तबाह करने का बीज भी दबाए रखा है।भारत के पूंजीवादी विकास ने जमीन की उर्वरता पर, पहले से ही बट्टा लगा दिया है। कृषि का पूर्ण निजीकरण होते ही, (हमेशा की तरह) निजी कम्पनियों का मक़सद, पर्यावरण को कुचल कर सिर्फ़ मुनाफ़ा बटोरना ही रह जाएगा। फिर आम जनता के पास (जिन्हें लगता है कि किसान आंदोलन उनका आंदोलन नहीं है) रसायन युक्त भोजन खाने और लाइलाज बीमारियों के इलाज के लिए, महंगे अस्पतालों का चक्कर काटने के अलावा कोई और उपाय नहीं रह जाएगा।