Day: ਅਪ੍ਰੈਲ 1, 2021

शिव कुमार के साथ मेरा सफ़र: एक प्यारी मुस्कान के पीछे गंभीर कार्यकर्ता और पुलिस की ज्यादती

आज से साढ़े पांच साल पहले मैं शिव कुमार के साथ जेल में रहा था। लगभग 16 दिन हम दोनों ने सोनीपत जेल में एक ही बैरक में बिताए। मैंने पहली बार देखा कि कैसे जाति की वजह से उसे सफाई के काम के लिए बार बार कहा जाता और हमने इस मानसिकता के खिलाफ संघर्ष किया। उस समय भी हमें झूठे केस में ही फंसाया गया था।

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सांस्कृतिक जन जागरण का केंद्र बनता शाहजहांपुर खेड़ा बॉर्डर

शाहजहांपुर खेड़ा बॉर्डर पर चल रहे किसान आंदोलन ने सांस्कृतिक रूप से जन जागरण का स्वरूप अख्तियार कर लिया है। इस आंदोलन में हरियाणवी, राजस्थानी और केरल सहित देश के विभिन्न हिस्सों की सांस्कृतिक मंडलियों ने अपनी जन जागृति की प्रस्तुति दी। एक पूरा दिन तो सांस्कृतिक प्रस्तुतियों का ही रखा गया था।

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वन्दे मातरम्

गेहूँ की कुशाग्र मूँछों पर गिरी वृष्टि की गाज

काली-काली भुङुली वाली बाली हुई अ-नाज़

हुए अन्नदाता ही दाने-दाने को मोहताज

भिड़े कुकुरझौंझौं में राजन महा ग़रीबनवाज़

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मोर्चे पर पत्रकार

“हम चुनौतियों से लड़ने के तरीके खोज निकालेंगे लेकिन किसी से डरकर रिपोर्टिंग करना नहीं छोड़ेंगे।” ये कहना है स्वतंत्र पत्रकार मनदीप पुनिया का जिन्हे कुछ दिन पहले पुलिस ने सिंघु बॉर्डर से उठाकर जेल मे बंद  कर दिया। मनदीप पुनिया शुरुआत से दिल्ली की सीमाओं पर चल रहे किसान आंदोलन को कवर कर रहे हैं।

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दो कृषि-आंदोलनों की एक दास्तान

1907 में पगड़ी संभाल जट्टा आंदोलन और 2020 से जारी किसानों के विरोध प्रदर्शनों के बीच समानताएँ 

इतिहास कई अर्थों में ख़ुद को दोहराता है। बहुत बार अतीत में हुई घटनाओं के आईने में हमें वर्तमान दिखाई देता है।

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लोकतंत्र अब जनता की ज़िम्मेदारी है!

वैसे भी हम लोकतंत्र दिवस, अंतराष्ट्रीय स्तर पर ही तो मनाते आये है, खैर,, राष्ट्रीय लोकतंत्र तो वैसे खतरे के निशान से ऊपर बह रहा है। अब हमारे पास आखिर उत्सवधर्मीता से मनाने लायक लोकतंत्र रहा ही कहाँ है?   

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पेशेवर पहचान और मूलभूत मुद्दों की राजनीति

चित्र और प्रतीकवाद किसी भी विमर्श के अभिन्न अंग हैं। वे एक को दूसरे से वरीयता देकर लोकप्रिय धारणा का निर्माण करते हैं। 26 जनवरी को लाल किले की प्राचीर पर निशान साहिब के ध्वजारोहण ने उस नैतिक स्तर को ठेस पहुँचाया, जिसे प्रदर्शनकारी किसानों ने हासिल किया था।

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आज़ाद किसान कमेटी, दोआबा

हरपाल जी बताते हैं कि कई किसानों ने 50 लाख तक के आलू बोए हैं, यानि की यह एक परिपूर्ण इलाक़ा है, आत्महत्या जैसी कोई समस्या इतनी नहीं है। छोटे से छोटे किसान भी सब्ज़ियाँ आदि लगाकर अच्छी आय अर्जित करते हैं। हम इस आंदोलन में तब शामिल हुए जब हमें एहसास हुआ की हमारी ज़मीनें चली जाएँगी। 

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तुम्हारी फ़ाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है

तुम्हारी फ़ाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है

मगर ये आँकड़ें झूठे हैं ये दावा किताबी है

उधर जम्हूरियत ढोल पीटे जा रहे हैं वो

इधर पर्दे के पीछे बर्बरीयत है नवाबी है

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1988 और 2020: दो प्रचंड बहुमत की सरकारें और दो किसान आंदोलन

ग़ाज़ीपुर धरना स्थल (किसान क्रांति गेट) की सड़कों पे चलते जब बजुर्गों से बात करो तो इस बात का एहसास होता है के ये मोर्चा हमारे लिए नयी बात होगी, उन्होंने तो पहले भी आंदोलन किए हैं और सरकारों को झुकाया है। 32 साल पहले या जैसे वो कहते हैं

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