सत्येंद्र कुमार (जी.बी. पंत सोशल साइंस इंस्टिट्यूट, प्रयागराज एंड इंस्टिट्यूट ऑफ़ एशिआन एंड ओरिएण्टल स्टडीज, यूनिवर्सिटी ऑफ़ ज़ूरिख, स्विट्ज़रलैंड), अनुवाद : शिवम् मोघा
19 नवंबर, शुक्रवार को प्रकाश पर्व (जो दस सिख गुरुओं में से पहले, गुरु नानक देव की जयंती है) पर प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने तीन कृषि कानूनों को वापस लेने की घोषणा करते हुए कहा कि उनकी सरकार, सर्वोत्तम प्रयासों के बावजूद, किसानों के एक वर्ग को यह नहीं समझा पाई कि कृषि कानून किसान समुदाय के व्यापक हित में थे। उन्होंने कहा कि सरकार संसद के आगामी शीतकालीन सत्र में कानूनों को निरस्त करेगी। प्रधानमंत्री ने यह भी कहा कि किसानों की चिंताओं को दूर करने के लिए एक समिति का गठन किया जाएगा। समिति किसानों के प्रतिनिधियों और कृषि नीति विशेषज्ञों की होगी। संयुक्त किसान मोर्चा (एसकेएम) ने इस कदम का स्वागत किया, लेकिन कहा कि आंदोलन तुरंत समाप्त नहीं होगा। किसान नेताओं ने कहा कि वे तब तक इंतजार करेंगे जब तक संसद में औपचारिक रूप से कानून निरस्त नहीं हो जाते और उनकी सभी मांगें पूरी नहीं हो जातीं। ऐसा लगता है कि चुनावी मजबूरियों ने बीजेपी और मोदी को किसान आंदोलन के आगे झुकने पर मजबूर कर दिया है, जो आधुनिक भारत के हाल के इतिहास में अभूतपूर्व घटना है। यह लेख इन मजबूरियों और उन तरीकों पर प्रतिबिंबित करता है और दर्शाता हैं कि कैसे उत्तर भारतीय राज्यों के लोग भाजपा के खिलाफ होते जा रहे हैं। कुछ राज्यों में अगले साल विधान सभा चुनाव होने वाले हैं, जैसे; उत्तर प्रदेश, पंजाब और उत्तराखंड।
तीनों कृषि कानून सितंबर 2020 में पारित किए गए थे। कृषि कानून का उद्देश्य कृषि क्षेत्र को बड़े कॉरपोरेट्स के लिए खोलना था; जो खरीद, भंडार समेत यह भी तय कर सकते थे कि कौन सी फसल का उत्पादन किया जाएगा। इसलिए, किसानों को डर था कि वे अंततः अपनी जमीन खो देंगे, जो न केवल उनकी सबसे महत्वपूर्ण संपत्ति है, बल्कि उनकी पहचान, विरासत और आत्म-सम्मान का आधार भी है। इस प्रकार, तुरंत कृषि कानूनों को किसानों के मजबूत प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। अगस्त 2020 में किसानों ने पंजाब में अपना विरोध प्रदर्शन शुरू किया और धीरे-धीरे राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली चले आए और तीन कानूनों को निरस्त करने की पुरजोर मांग की। उन्होंने एमएसपी को कानूनी अधिकार बनाने की भी मांग रखी। तब से एक साल के दौरान लगभग 700 किसानों ने सर्दी, भीषण गर्मी, भारी बारिश, भयावह COVID-19 महामारी, और एक शत्रुतापूर्ण नौकरशाही मशीनरी और पुलिस बल का सामना करते हुए अपनी जानें गंवाई हैं। बीते अक्टूबर, उत्तर प्रदेश राज्य के लखीमपुर खीरी में घटित, एक दुखद घटना में तेज रफ्तार कारों की चपेट में आने से चार किसानों की मौत हो गई थी। सामान्य जन ने जाति-धर्म से परे जाकर इस अमानवीय घटना का विरोध ही नहीं किया बल्कि किसानों के लिए अधिक समर्थन और सहानुभूति का इज़हार किया है, समर्थन की इस बढ़ती लहर ने उत्तर प्रदेश में भाजपा और उसकी सरकार को चिंतित कर दिया है।
पिछले एक साल में जब विरोध प्रदर्शनों का पंजाब और हरियाणा में महत्वपूर्ण राजनीतिक प्रभाव पड़ा है। लखीमपुर खीरी की घटना ने राजनीतिक समीकरण बदल दिए हैं क्योंकि किसान आंदोलन उत्तर प्रदेश के रोहिलखंड और अवध क्षेत्रों में फैल गया है। अब तक किसानों का विरोध पश्चिमी यूपी तक ही सीमित रहा है। आगामी चुनावों में उत्तर प्रदेश में भाजपा की चुनावी संभावनाओं पर लखीमपुर खीरी की घटना से होने वाले नुकसान को देखते हुए, मोदी सरकार ने कानूनों को निरस्त करने का फैसला किया है। इसके अलावा, अन्य निकटवर्ती कारण भी हैं, जैसे कि – बढ़ती मुद्रास्फीति और बढ़ती बेरोजगारी दर – जिसने भाजपा के गढ़ में भय पैदा कर दिया है। बीजेपी यूपी चुनाव हारने का जोखिम नहीं उठा सकती क्योंकि यह प्रदेश 80 सांसदों को लोकसभा भेजता है और राष्ट्रीय चुनाव जीतने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
हालांकि यह सच है कि पूरे उत्तर प्रदेश में किसानों के विरोध की उतनी तीव्रता नहीं है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाटों की लामबंदी अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों में भाजपा के लिए एक बड़ा खतरा है। जाट लामबंदी भाजपा के विजय मार्च को पटरी से उतार सकती है क्योंकि जाट किसान भी जातियों और समुदायों में एक नई एकजुटता बनाने में कामयाब रहे हैं; खासकर मुस्लिम किसानों के साथ। इसके अलावा, बढ़ती बेरोजगारी दर के कारण हर जाति और वर्ग के युवा बेचैन हो रहे हैं। इन कारणों के संयोजन से 2024 के लोकसभा चुनावों के साथ-साथ 2022 के विधान सभा चुनाव में भाजपा के जीतने की संभावना खतरे में पड़ जाएगी। जाट वोट बैंक के पुनर्गठन पर विचार करना भाजपा के लिए यूपी में अपनी जीत के अवसरों को सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक था। इसलिए, मोदी सरकार ने तत्काल राजनीतिक अत्यावश्यकताओं के कारण तीन कृषि कानूनों को निरस्त करने का निर्णय लिया है।
तत्काल राजनीतिक जरूरतों (2022 में यूपी विधानसभा चुनाव और 2024 में लोकसभा चुनाव) के रूप में, भाजपा नेतृत्व पश्चिमी यूपी क्षेत्र में जुआ नहीं खेलना चाहता है, जो आगामी चुनावों में भाजपा की चुनावी जीत को बना और बिगाड़ सकता है। पश्चिमी यूपी क्षेत्र में गैर-जाट वोट जुटाने की संभावना बहुत उपजाऊ नहीं है, जैसा कि हरियाणा में था। इसका कारण एक बड़ी मुस्लिम आबादी है, जिसे भाजपा संभवतः जीत नहीं सकती है, जाट और मुस्लिम समीकरण भाजपा की राजनीति के लिए एक अवरोधक है। इस प्रकार, भाजपा जाट वोटों को खोने का जोखिम नहीं उठा सकती है; जिसने 2009, 2014 और 2017 में भाजपा को चुनावी जीत दिलाई है। पश्चिमी यूपी में जाटों का लगभग 17 प्रतिशत वोट है। इस क्षेत्र में मुस्लिम आबादी 28 प्रतिशत से अधिक है। संभावना जताई जा रही है कि ये दोनों गुट एक साथ आकर बीजेपी का चुनावी खेल बिगाड़ सकते हैं। इसलिए, भाजपा और आरएसएस, जाट राजनीतिक प्रतीकों जैसे राजा महेंद्र प्रताप सिंह और गोकुल जाट का सम्मान करके जाटों के एक वर्ग को खुश करने की कोशिश कर रहे हैं। इसके अलावा, कृषि कानूनों के निरस्त होने से जाटों के भीतर मौजूदा दरार और चौड़ी हो जाएगी, उनमें से एक वर्ग पहले से ही भाजपा के पास है। भाजपा अब टिकैत बंधुओं को भी लुभाने का प्रयास कर सकती हैं, इसके लिए बीजेपी यूपी विधानसभा चुनाव से पहले एक बार फिर पश्चिमी यूपी में जाटों और मुसलमानों के बीच सांप्रदायिक तनाव को हवा देने की कोशिश कर सकती है, या टिकैत भाइयों को कोई और आकर्षक विकल्प दे सकती है। इस प्रकार, मोदी द्वारा तीनों कृषि कानूनों को निरस्त करने की घोषणा राजनीतिक जोड़-तोड़ और आशंकाओं से भरी हुई है। अब किसान नेत्रत्व के सामने किसान आंदोलन के साथ भारतीय लोकतंत्र को बचाने की एक बड़ी चुनौती है।