
दिल्ली की सीमाओं पर किसानों के विरोध प्रदर्शन के 6 महीने बीत चुके हैं। इस दौरान उन्हें पुलिस कार्रवाइयों, गिरफ्तारियों, कंक्रीट के बैरियर, लोहे की कीलों का सामना करना पड़ा। उनकी बिजली काटी गई, पानी बंद किया गया, इंटरनेट बंद किया गया। उन्होंने खुले आसमान के नीचे मौसम की मार झेली। आंदोलनकारियों और उनके परिवार के लोगों की शहादतें हुईं। इस सब के बावजूद वे आंदोलन के मोर्चे पर मजबूती के साथ टिके हुए हैं। वह क्या है जो इतनी विपरीत परिस्थितियों के बावजूद उन्हें टिकाये हुए है? वे बग़ावत का यह तेवर कहां से हासिल करते हैं? उनके प्रेरणास्रोत कौन हैं? ग़ाज़ीपुर, सिंघू और टिकरी बॉर्डर पर मौजूद प्रतिरोध की कला और वहां होने वाले जलसों पर गौर करने पर इन सवालों के जवाब मिल सकते हैं। किसानों के ट्रैक्टर, ट्रॉलियां और टेंट हाथ से लिखे हुए और छपे हुए पोस्टरों, बैनरों, पेंटिंग, स्टिकर और झंडों से अटे पड़े हैं। इन पर किसान संघर्षों के नेताओं के चित्र हैं, शोषण के खिलाफ लड़ते हुए अपना जीवन बलिदान करने वालों की तस्वीरें हैं, अंग्रेजी हुकूमत को चुनौती देने वाले क्रांतिकारियों के चेहरे हैं, दलित नेताओं और जाति व्यवस्था को चुनौती देने वाले योद्धाओं की मौजूदगी है तो साथ ही साथ 1857 के स्वाधीनता संग्राम के नायकों की तस्वीरें भी मौजूद हैं। आंदोलनकारियों के कैंपों से गुजरना प्रतिरोध आंदोलनों और जन-एकता के इतिहास से गुजरना भी है।
बाबा नानक को किसान के रूप में दिखाने वाली पेंटिंग है, उसके साथ संत राम उदासी और लाल सिंह दिल की कवितायें हैं। इनमें श्रम के मूल्य पर जोर दिया गया है। संत राम उदासी की मशहूर पंक्तियां- ‘उट्ठ किरतियां, उठ वे, उट्ठन दा वेला’ (उट्ठो मजदूरों! उट्ठो! उठने का (प्रतिरोध में) वक़्त आ गया है), बार-बार लिखी हुई दिखाई पड़ जाती हैं।

भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव, उधम सिंह जैसे क्रांतिकारियों से लेकर सोहन सिंह भकना व करतार सिंह सराभा जैसे गदर आंदोलन के क्रांतिकारियों की तस्वीरें सबसे ज्यादा लोकप्रिय हैं। ये क्रांतिकारी किसानों ही नहीं पूरे भारतवासियों के लिए आज भी प्रेरणास्रोत हैं।


प्रदर्शनकारी किसानों ने इस बार लोहड़ी दिल्ली की सीमाओं पर ही मनायी। न सिर्फ खेती कानूनों को जलाया गया बल्कि लोकनायक दुल्ला भट्टी के बारे में गीत भी गाये गये। दुल्ला भट्टी को ‘पंजाब का रॉबिनहुड’ कहा जाता है, जिसने मुग़लों के खिलाफ विद्रोह किया था और टैक्स के पैसे को गरीबों में बांट दिया था।

एक और प्रेरणा देने वाले नायक हैं बंदा बहादुर। बंदा बहादुर को पंजाब में मुग़ल शासन को घुटनों पर ला देने के लिए याद किया जाता है। बंदा बहादुर द्वारा छोटे साहबजादों (गुरु गोबिन्द सिंह के दोनों छोटे बेटों) की हत्या का बदला लेने के लिए सरहिन्द के इलाके पर हमला करने, जमीन और मालगुजारी को किसानों में बांट देने और अंतत: दिल्ली में शहादत पाने की घटनायें लोकगाथाओं का हिस्सा बन चुकी हैं। सिख परंपरा के अनुसार 7 और 9 साल के छोटे साहबजादों ने मुगलों के सामने झुकने की जगह दीवार में जिंदा चुना जाना स्वीकार किया था। गुरु गोबिन्द सिंह की मां माता गूजरी ने छोटे साहबजादों को साहसी बने रहने और अपने विश्वास पर अटल रहने के लिए प्रेरित किया था। छोटे साहबजादे और माता गूजरी पंजाब के सर्वाधिक पूजनीय लोगों में से हैं, इनके बलिदान को आज तक याद किया जाता है। इनकी तस्वीरें भी किसान आंदोलन में मौजूद हैं।

स्वाधीनता संग्रामियों में झारखंड के लोकनायक बिरसा मुंडा और उत्तर प्रदेश में 1857 के संग्राम में स्थानीय लोगों का नेतृत्व करने वाले जाट नेता बाबा शाहमल भी मौजूद हैं।

अंग्रेजों के खिलाफ किसान आंदोलनों का नेतृत्व करने वालों के साथ-साथ आजादी के बाद के किसान आंदोलनों के नेता आज के आंदोलनकारी किसानों के प्रेरणास्रोत बने हुए हैं। यहां आपको 1907 के ‘पगड़ी संभाल जट्टा’ आंदोलन के लिए प्रसिद्ध अजीत सिंह (भगत सिंह के चाचा), अखिल भारतीय किसान सभा के स्वामी सहजानंद सरस्वती और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मशहूर किसान नेता चौधरी चरण सिंह की तस्वीरें भी देखने को मिलेंगी।


जाति व्यवस्था की तीखी आलोचना करने वाले अंबेडकर, साबित्री बाई फुले और गुरु रविदास के पोस्टर भी मौजूद हैं।

संयुक्त किसान मोर्चा ने तीनों सीमाओं पर जिस तरह के जलसे किये और गतिविधियां संचालित कीं, वे बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। 8 मार्च को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाया गया। इसका मकसद खेती में महिलाओं के श्रम की भूमिका और बराबरी के लिए उनके संघर्ष को रेखांकित करना था। 1 मई को अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाले मजदूरों के सम्मान में मई दिवस का आयोजन किया गया। अंबेडकर जयंती के दिन 14 अप्रैल को संयुक्त किसान मोर्चा ने ‘संविधान बचाओ दिवस’ के रूप में मनाने का आह्वान किया। इसका मकसद केन्द्र सरकार द्वारा लागू किये गये खेती कानूनों की असंवैधानिकता को रेखांकित करना था। इसे ‘बहुजन एकता दिवस’ के रूप में भी मनाया गया। अजीत सिंह के नेतृत्व में उपनिवेश-विरोधी किसान आंदोलन ‘पगड़ी संभाल जट्टा’ की याद में 23 फरवरी को दिल्ली की हर सीमा पर ‘पगड़ी संभाल जट्टा दिवस’ की धूम थी। 27 फरवरी को गुरु रविदास जयंती और चंद्रशेखर आज़ाद का शहादत दिवस के अवसर पर दोनों महापुरुषों को एकसाथ याद किया गया। पेप्सु मुजारा आंदोलन के शहीदों के परिवारों को 19 मार्च को सम्मानित किया गया। 23 मार्च को भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव के शहादत दिवस को ‘शहीदी दिवस’ के रूप में मनाया गया। मई में 1857 के स्वाधीनता संग्राम को याद किया गया।

यह किसान आंदोलन ‘होंद दी लड़ाई’ या अस्तित्व के लिए संघर्ष बन गया है और विभिन्न बगावतों के नायकों से यह प्रेरणा हासिल कर रहा है। ये सभी बाधाओं को परे रखकर आखिरी सांस तक संघर्ष करने के प्रतीक हैं। ये हक के लिए संघर्ष, अन्याय के खिलाफ न्याय के लिए संघर्ष और शोषणकारी शासकों के दमन के खिलाफ संघर्ष की प्रेरणा देते हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इस आंदोलन ने पहचाना है कि यह हाशिए पर धकेल दिये गये सभी लोगों के लिए भी बराबरी, सम्मान और न्याय का संघर्ष है। इसलिए उन्हें ‘देशद्रोही’ या ‘खालिस्तानी’ बताना, सोची समझी नीति के तहत भ्रम फैलाने की कोशिश करना है। ये आंदोलनकारी बाबा नानक से लेकर भगत सिंह और अंबेडकर तक की ऐतिहासिक विरासत के वारिस हैं। ये आजादी, बराबरी और सबसे कमजोर तबकों के अधिकारों के लिए लड़ने वाले लोग हैं। भारत और उसके लोगों के प्रति ऐसी प्रतिबद्धता को भला और कौन से सबूत देने की जरूरत है?
(कनिका सिंह इतिहासकार हैं)