1978 में हज़ारों अमेरिकी किसान अमेरिका की राजधानी वाशिंगटन डीसी में अपने ट्रैक्टरों के साथ हफ्तों तक डेरा डाले रहे। वह वहां इसलिए आए थे क्योंकि उनके अस्तित्व को खतरा था। यह विरोध “ट्रेक्टरकेड” के रूप में जाना गया, और किसानों की यही माँग थी कि अन्य उत्पादकों की तरह, किसानों को भी अपने उत्पादों के लिए उचित मूल्य मिलना चाहिए और सरकार द्वारा बनाई गई नीतियों में किसानों का कहा भी शामिल होना चाहिए।
विरोध प्रदर्शन शुरू होने के कुछ हफ्तों बाद, सरकार द्वारा किसानों को यह आश्वासन दिया गया कि उनकी सभी मांगें पूरी होंगी। इसके बाद जल्द ही किसान राजधानी से वापिस लौट गए। उन्हें अंदाज़ा ही नहीं था कि कितनी बड़ी ताक़तें इस खेल में शामिल होंगी।
42 साल बाद, भारतीय किसान भारत की राजधानी नई दिल्ली में इकट्ठा हुए हैं, और कुछ ऐसी ही गारंटी मांग रहे हैं। विश्व का ध्यान भारत की ओर आया है, और इस किसान-मजदूर आंदोलन को दुनिया भर से समर्थन मिला है। मोदी सरकार द्वारा विभिन्न मानवाधिकारों के उल्लंघन की जांच करते हुए कनाडा, यूके और अमेरिका जैसे देशों की सरकारों ने विरोध प्रदर्शन करने के अधिकार के प्रति अपना समर्थन व्यक्त किया है।
लेकिन इन बयानों पर यदि ग़ौर किया जाए तो एक पैटर्न उभरता है: भले ही विदेशी सरकारों ने विरोध करने के अधिकारों का समर्थन किया है, उन्होंने इन तीन कानूनों पर टिप्पणी करने से ख़ुद को दूर ही रखा है, जो अंत में इस आंदोलन के असल मुद्दे हैं। मिसाल के तौर पर, हाल ही में अमेरिकी स्टेट डिपार्टमेंट के आए बयान में उन्होंने एक तरह से इन कानूनों के प्रति अपना समर्थन भी जाहिर किया है।
जैसे भारत सरकार ने बार बार कहा है, यह कानून भारत का निजी मामला है। हम कह सकते हैं कि मानव अधिकारों को सार्वभौमिक रूप से संरक्षित किया जाता है। किंतु दूसरी ओर, नीति के मामले एक विशिष्ट सरकार का क्षेत्र हैं। लेकिन यह वाक्य एक और सच्चाई छुपाता है। भारत में चल रहा किसान-मजदूर आंदोलन एक ऐसे मुद्दे पर रोशनी डालता है जो पश्चिम में निर्विवाद हो चुका है: वो यह कि अर्थशास्त्र में “बड़ा” बेहतरीन और अनिवार्य दोनों ही है। इस चुप्पी में थोड़ी और गहराई से देखें तो पश्चिमी शैली के औद्योगीकरण के भूत दिखाई देंगे, जिसमें तीन दशक पहले वाशिंगटन डीसी में किसानों के विरोध प्रदर्शन का भूला हुआ इतिहास भी शामिल है।
कई दशकों तक, अमेरिका और पश्चिमी यूरोप में आर्थिक नीतियाँ एक आम तर्क के तहत एकजुट रहीं – कि आर्थिक समानता दिलाने के लिए सरकार की अर्थव्यवस्था में हस्तक्षेप करने की ज़िम्मेदारी है। किसानों को उम्मीद थी कि इससे सरकार द्वारा उन्हें उचित मूल्य और कुछ हद तक वित्तीय स्थिरता की गारंटी मिलेगी। किंतु इस आंदोलन के साथ-साथ उसी दशक में अमेरिका में कॉर्पोरेट-समर्थित संस्थान सत्ता पर कब्जा कर रहे थे। उन्होंने अपनी सरकार के साथ मिलकर एक ऐसी नीति को ज़ोर देने का प्रयास शुरू कर दिया जिसे आज “डीरेग्यूलेशन” के नाम से जाना जाता है। अमेरिकन एंटरप्राइज इंस्टीट्यूट (AEI), बिज़नेस राउंड टेबल और नेशनल ऑर्गेनाइजेशन ऑफ मैन्युफैक्चरर्स (NAM) जैसे समूहों ने इस बात पर ज़ोर दिया कि विकास और समृद्धि का रास्ता उन नियमों को तोड़ने में है जो व्यवसायों को आगे बढ़ने से रोकते हैं। 1979 का ट्रेक्टरकेड इस प्रक्रिया के खिलाफ एक आखिरी कोशिश जैसी था। जब किसान विरोध कर रहे थे, तब भी सरकार अलग दिशा में ही जा रही थी।
1973 में राष्ट्रपति निक्सन की सरकार के कृषि सचिव अर्ल बुट्ज़ द्वारा कृषि क्षेत्र को एक नारे से परिभाषित किया जा रहा था। बुट्ज़ का किसानों को कहना था, “बड़ा बनो, या बाहर निकलो” (गेट बिग ओर गेट आउट)। कई दशकों से अलग-अलग अमेरिकी सरकारों ने लगातार बड़े निगमों के इशारों पर काम किया है, जिससे उन्हें छोटे प्रतियोगियों को कुचलने और लगभग हर क्षेत्र में कुलीन वर्गों की स्थापना करने में मदद मिली है। 1973 में बुट्ज़ का बयान आने वाले बदलावों की और इशारा कर रहा था। 1980 के दशक में राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन के तहत “डीरेग्यूलेशन” की नीतियों को और भी तेजी से पारित किया गया। आज भारत में तीन कृषि कानूनों की ही तरह, विकास को गति देने के नाम पर “डीरेग्यूलेशन” को बाजार के उदारीकरण के रूप में उतारा गया था। सरकारी दावों के विपरीत इसने बड़े निगमों को अपने प्रतिद्वंद्वियों को डुबोने, लाभ पर कब्जा करने और अपने ग्राहकों के लिए एकमात्र विकल्प के रूप में उभरने की ताकत दी।
ठीक प्रधानमंत्री मोदी की तरह अमेरिकी सरकार यह तर्क देती रही कि “सरकार का व्यापार से कोई लेना देना नहीं है”। लेकिन इस पूरी अवधि के दौरान सरकार केवल पीछे ही खड़ी नहीं रही। दरअसल यह नवउदारवादी पूंजीवाद (neoliberal capitalism) का एक सामान्य मिथक है – असल में सरकार सक्रिय रूप से हस्तक्षेप करती है, लेकिन कॉरपोरेशन की ओर से।
आज अमेरिका में लगभग हर वस्तु का उत्पादन एक बड़े निगम द्वारा किया जाता है, और ख़ास तौर पर कृषि क्षेत्र में। उदाहरण के तौर पर, पोल्ट्री उद्योग में केवल पाँच कंपनियों का बाजार में 60% से अधिक हिस्से पर नियंत्रण है। अकेले 20वीं सदी में अमेरिकी किसानों की संख्या 40% से लगभग 1% तक गिर गई है। बाक़ी बचे अधिकांश किसान इन बड़े निगमों के तहत अनुबंधित हैं। उनकी औसत आय चौंका देने वाली है – 1500 डॉलर, जिसका मतलब है कि अधिकांश किसान कर्ज के निरंतर चक्र में रहते हैं।
इसका मतलब यह नहीं है कि अमेरिकी निगमों की सफलता केवल सरकारी परिणाम है। अमेरिकी निगम आज अगर हम पर हावी हैं तो इसके पीछे एक गहरी और लंबी प्रक्रिया है। हमारे सोचने के तरीके को बदलने जितनी गहरी। 1950 और 2000 के बीच, न केवल इन निगमों ने लाखों अमेरिकी किसानों को व्यापार से मिटा दिया है, बल्कि उन्होंने देश को आश्वस्त किया कि यह प्रक्रिया प्राकृतिक, लाभप्रद और बेदर्द है।
इस प्रयास के केंद्र में कृषि अर्थशास्त्र के ढांचे को एक नया रूप देने की कोशिश थी। कृषि विज्ञान और विपणन से लेकर वितरण तक, कृषि के हर पहलू को निगमों ने अपने हाथों में ले लिया था – सिवाय खेत के निगमों ने महसूस किया कि खेतों को लेना जोखिम भरा होगा और उनका वास्तविक खेती की प्रक्रिया से कोई लेना-देना नहीं था। उनका समाधान कॉन्ट्रैक्ट खेती था, एक प्रक्रिया जहाँ निगम सभी जोखिम से बच सकते थे, और केवल लाभ पर कब्जा कर सकते थे।
कॉन्ट्रैक्ट खेती एक काफी पुराना सिस्टम था। इतिहासकारों का कहना है कि इसका पहला उदाहरण 1914 में देखा जा सकता है, जब अर्कांसस राज्य के मुर्गी पालन करने वाले एक किसान, एमएक्स प्राइस, ने कॉन्ट्रैक्ट खेती शुरू की थी। ऐसे समय में जब यह क्षेत्र सूखे की चपेट में था, किसानों ने मुर्गी पालन के उद्योग की ओर बढ़ना शुरू कर दिया था, और उनमें से कुछ लोगों ने मुर्गी और अंडे पैदा करने के लिए भागीदारों की तलाश की।
कॉन्ट्रैक्ट खेती को धीरे-धीरे कॉर्पोरेट खेती बनने में कई दशक लग गए। जैसे-जैसे बड़े किसान की निगमों में भागीदारी बढ़ती गई, वे छोटे प्रतिद्वंद्वियों को ख़रीदते गए और अनुबंध की शर्तों के हवाले से उन पर हावी होने में सक्षम रहे। इन निगमों को यह भी समझ आया कि कॉर्पोरेट खेती को बिलकुल उसके अर्थ के विपरीत बाजार में यह कहकर उतारा जा सकता है कि यह किसानों के लिए खुद को बचाने का एकमात्र तरीका है।
मिसाल के तौर पर 1987 में डॉन टायसन द्वारा दिए गया एक इंटरव्यू देखें। उस वक़्त डॉन टायसन “टायसन फूड्स” के अध्यक्ष थे। टायसन फूड्स आज दुनिया में चिकन मांस का सबसे बड़ा उत्पादक है। इस इंटरव्यू में टायसन एक साहसिक दावा करते हैं – कॉंट्रैक्ट खेती ने किसानों को उनकी ज़मीनों पर रहने की अनुमति देकर कृषि क्षेत्र को बचाया है। उन्होंने कहा, “हमने जो व्यवस्था की है उससे कृषि क्षेत्र में अनेक किसान कॉर्पोरेट खेती में जाने के बजाय अपने खेतों में रह सकते हैं। इसलिए हमें इस अनुबंध खेती की धारणा पर गर्व है।”
इस तरह के बयान टायसन फूड्स की छवि को साफ करने के लिए महत्वपूर्ण थे। 1930 के दशक में टायसन फूड्स वास्तव में एक छोटा खेत था। लेकिन पांच दशक बाद, जब यह साक्षात्कार रिकॉर्ड किया गया, तब तक बहुत कुछ बदल चुका था। साक्षात्कार के समय, टायसन फूड्स अब अपने उद्योग में सबसे बड़े निगमों में से एक था, जिसने हजारों किसानों को निगलते हुए उन्हें व्यवसाय से बाहर कर दिया था। फ़िर भी, टायसन इस बात पर ज़ोर देते थे कि यह एक “पारिवारिक खेत” है। ऐसे तर्कों के सहारे हर वर्ष लगभग 135 मिलियन डॉलर की टैक्स छूट मिली और वे नियामक निरीक्षण से बच सके।
आज, टायसन फूड्स की कीमत 40 बिलियन डॉलर से अधिक है, और यह दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा चिकन, बीफ़ और पोर्क उत्पादक है। यह भारतीय बाजार में भी प्रवेश कर चुका है। 2014 में, कॉन्ट्रैक्ट चिकन फार्म में पहले प्रयास के एक सदी बाद, गोदरेज टायसन ने भारत के ताज़ा चिकन मार्केट के तकरीबन एक चौथाई हिस्से पर कब्जा करने की अपनी योजना की घोषणा की।
टायसन की रणनीति केवल कानूनी ख़ामियों का फायदा उठाना नहीं थी। अपने अरबों डॉलर की आय, कानूनी टीम और शिकारी व्यावसायिक प्रथाओं के बावजूद, टायसन का यह कहना जारी है कि वह एक छोटे पारिवारिक खेत की तरह काम करता है। इसके अध्यक्ष जॉन टायसन अपनी वेबसाइट पर कहते हैं कि “यह कंपनी विश्वास, परिवार और कड़ी मेहनत के आधार पर बनाई गई है।” अर्थशास्त्रियों ने भी इस पूँजीवादी प्रक्रिया को हमेशा “वर्टिकल इंटीग्रेशन” या “ऐग्रिकल्चरल कन्सॉलिडेशन” जैसे पवित्र शब्दों में वर्णित करते हुए कृषि क्षेत्र पर हुए कॉर्पोरेट कब्जे के जुल्मों पर पर्दा डाला है।
आखिरकार, अमेरिकी किसान का क्या बना? अफ़सोस है कि इसका जवाब भी निगम की ताकत से ही संबंधित है। टायसन और उनके जैसे अन्य पूँजीपतियों ने किसानों और उत्पादकों द्वारा यूनियन बनाने के सभी प्रयासों पर एक हमला किया। 1978 का ट्रेक्टरकेड अपने आप में एक असाधारण घटना थी जब अलग अलग तबकों से आए किसान अपनी लड़ाई में एकजुट थे। लेकिन आज के अमेरिका में किसान यूनियनें अभी विलुप्त हैं। और जो किसान बाकी रह भी गए हैं वे अफ़सोस करते हैं कि अब यूनियन बनाने के लिए किसान बचे ही नहीं हैं। अमरीका का किसान अकेला है।
इसीलिए आज बहुत कम अमेरिकी नागरिक यह जानते हैं कि उनके किसान हर साल शून्य से कम आय अर्जित करते हैं। और उससे भी कम लोग यह जानते हैं कि यही किसान एक बार विरोध में एकजुट हुए थे।