जनता को अफ़वाहों में उलझाना बहुत आसान है। हालिया में अफ़वाह उड़ी कि किसानों ने दिल्ली की ओर आते ऑक्सिजन टेंकर को रोक लिया। इस अफ़वाह का किसान नेताओं ने सिरे से खंडन किया।अगर आप पंडित श्रीराम शर्मा मेट्रो स्टेशन से नीचे उतरेंगे तो पाएँगे कि किसान राष्ट्रीय राजमार्ग पर बैठे हैं – और सड़क के दोनो तरफ़ आने-जाने के रास्ते खुले है। दिल्ली जाने का रास्ता बंद ज़रूर है, पर पुलिस के बैरिकेड से। जिसकी वजह से स्थानीय लोगों को भी कच्चे रास्ते से जाना पड़ता है और वाहनों को टोल टेक्स भी देना पड़ रहा है। पुलिस को रास्ता खोल देना चाहिए ताकि ऑक्सिजन टेंकर आराम से दिल्ली पहुँच सके।
टिकरी मोर्चे पर, जिसके अस्तित्व के बारे में मुझे कभी पता भी नहीं था, मेरा अनुभव काफ़ी सुखद और अद्भूत रहा है। मैं एक जिज्ञासु की तरह आंदोलन में आया। आंदोलन के समर्थन में मैं शुरू से हूँ लेकिन कभी नौकरी और घर का आराम छोड़कर मोर्चे पर नहीं आया। इसके अलावा कभी मैं शायद ही हरियाणा के बहादुरगढ़ शहर को देखने भी नहीं आता।
पहली नज़र में ही मुझे अंदाज़ा लग गया कि बहादुरगढ़ एक औध्योगिक शहर के सारे पैमानों पर खरा उतरता है। जैसे कि विकिपीडिया में इसे इंडस्ट्रीयल हब के रूप में बताया गया है जहां काँच, सेरमिक आदि की इकाइयाँ है। यहाँ मज़दूरों की बड़ी संख्या है जो सुबह-शाम इस रास्ते से पैदल आती-जाती है। वे यहाँ के प्रदूषण और गर्मी की ज़्यादा परवाह नहीं करते है।
इंटरनेट पर मौजूद आँकड़ों के अनुसार बहादुरगढ़ का हवा की गुणवत्ता 152 है जो कि ‘अस्वस्थ’ की श्रेणी में है। जब हवा की गुणवत्ता अस्वस्थ है तो लोगों को अंदर रहने की सलाह दी जाती है। इसके उलट, किसान चौबीसों घंटे बाहर खुले में अपनी जान पर खेल कर बैठे है। इस स्तर के प्रदूषण में भी जहां सामान्य हृदय और फेफडें भी मुश्किल में पड़ जाते है, इन बूढ़े किसानों की सेहत इस ज़हरीली हवा को कैसे झेल सकती है?
जब हरियाणा सरकार के मंत्री ने विवादास्पद बयान दिया कि किसान तो घर पर भी मरते ही है, वह उनके मानसिक दिवालियेपन की निशानी है। वायु सूचकांक 152 के साथ कारख़ानों से निकली सल्फ़र डाई आक्साइड, के चलते जिन लोगों को थोड़ा-बहुत भी हृदय-फेफड़ों की दिक़्क़त है उन्हें भी हृदयघात से मौत हो सकती है।
मैंने भी प्रदूषण को खुद महसूस किया है। मैंने एक छोटा सा स्मार्ट बैंड पहना जिसमें मोर्चे पर रहने के दौरान मेरी हार्ट बीट 107 के नीचे कभी नहीं आया। मैं वहाँ सिर्फ़ 5-6 दिन रहा तो सोचिए जो किसान वहाँ तीन महीने से बैठे है उनकी क्या हालत होगी? किसान इस बात की कभी शिकायत नहीं करेंगे लेकिन जिस दर से मोर्चे पर किसानों की मौत हो रही है, इससे स्पष्ट है कि वे अपनी जान पर खेलकर आंदोलन चला रहे है।
हमारा देश कोविड महामारी से गुजर रहा है और किसान इस संकट के समय पर भी हिम्मत दिखाकर इन काले क़ानूनों के ख़िलाफ़ लड़ रहे है। हालाँकि इनके पास बहुत बड़ा समर्थन है, फिर भी मुझे लगता है कि आंदोलन को और समर्थन की ज़रूरत है।
मैं उन सभी नागरिकों से, जो किसान और उनके मुद्दों के प्रति संवेदनशील है और काले क़ानूनों के ख़िलाफ़ है, विनती करता हूँ कि वो आंदोलन के समर्थन में आगे आए!
किसानों को मत भूलिए। वे अभी भी डटे हुए है!!!