भारत का किसान एक बार फिर सड़क पर आने को मजबूर है इसका तात्कालिक कारण केन्द्र सरकार द्वारा लाए गए तीन कृषि कानून है। इन कानूनों का विरोध वैसे तो पुरे भारतवर्ष में हो रहा है लेकिन अधिकतम प्रभाव दिल्ली, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान एवं पंजाब में दिख रहा है। इसका प्रमुख कारण यह है की यहां पर मंडियों की संख्या ज्यादा है और किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य भी मिलता है। वहीं भारत के दूसरे अन्य हिस्सों में किसानों का जबरदस्त शोषण होता है। उदाहरण के तौर पर भारत में सिर्फ 6% क्षेत्र में ही एमएसपी मिलता है लेकिन इसका सबसे अधिक फायदा पंजाब, हरियाणा, राजस्थान के किसानों का होता है। यही कारण है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार एवं दूसरे राज्य के किसान भी पंजाब, हरियाणा अपने धान और गेहूं बेचने आते हैं. बिहार या झारखंड जैसे राज्यों की बात करें तो किसान कानूनों (Farmer’s Bill) से वहां के किसानों के जीवन पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा। वहां पहले से ही सरकारी खरीद (Government Purchase) या कृषि मंडी (APMC Mandi) नाम की कोई चीज काम नहीं कर रही है। वहां पहले से ही किसान बिचौलियों या व्यापारियों के पास अपना कृषि उत्पाद बेचने को मजबूर हैं। यही कारण है कि उन राज्यों का किसान और अधिक गरीब होता जा रहा है।
हालाँकि सरकार का कहना है की विरोधी पार्टियों ने किसानो को गुमराह कर रखा है लेकिन समस्या सिर्फ ये तीन कानून नही है यह सिर्फ आंशिक सच है सच्चाई इससे कहीं अधिक है। यदि हम भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास गति को देखें तो पायेंगे की इसमें तीन प्रमुख क्षेत्रों का योगदान है, पहला कृषि, दूसरा, निर्माण, तीसरा, सर्विस सेक्टर. लेकिन यदि 1990 के आर्थिक सुधारो के बाद की भारत की अर्थव्यवस्था की विकास गति की बात करे तो उसमे बहुत असमानता नजर आती है। जहा पिछले 30 सालो में सेवा क्षेत्र में 8 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि ही है। वही कृषि क्षेत्र में सिर्फ 1 प्रतिशत के करीब की वृद्धि हुई है. इसके कई कारण है पहला, शहरी एवं ग्रामीण अर्थव्यवस्था के विकास में विरोधाभास। जहां शहरी व्यवस्था सेवा एवं निर्माण क्षेत्र से जुडी है एवं पूंजीपतियों का प्रभाव है। इस क्षेत्र में पिछले 30 वर्षो में जबरदस्त वृद्धि हुई है एवं सरकार ने भी नीजिवाद एवं न्यनूतम राज्य के सिद्धांत को अपनाते हुए इनको अधिक अवसर दिए है उदाहरण के तौर पर मोदी सरकार ने पिछले 6 वर्षो में 8 लाख करोड़ रूपये के अधिक के पूंजीपतियों के लोन माफ़ किये है और यदि वे लोन नही लौटा पाते तो वे विदेश भाग जाते है। इसके अलावा भारत में डब्ल्यूटीओ (WTO) के दबाव में सरकार लगातार कृषि सब्सिडी में कटौती कर रही है, जो कि चिंता का विषय है। वहीं ग्रामीण भारत की जनसंख्या खेती करती है उसमें ना के बराबर वृद्धि हुई है। सरकार के द्वारा कृषि क्षेत्र को न सिर्फ नजरअंदाज किया गया बल्कि उसको ध्वस्त करने का प्रयास भी किया जा रहा है। यह विरोधाभास ही है कि जहां देश की 50% से अधिक जनसंख्या कृषि पर निर्भर है लेकिन जीडीपी में उसका योगदान मात्र 15% है। दूसरा, किसान के नाम पर होने वाली राजनीति; किसान के प्रमुख नेता जो यह दावा करते हैं कि वह किसान के हितों की आवाज उठाते है, यह विचारणीय है।वे जाति एवं धर्म का इस्तेमाल कर के सिर्फ अपने और अपने परिवार के लाभ के बारे में सोचते है। यह आन्दोलन एक तरीके से पुराने नेता बनाम नए नेता की लड़ाई भी है क्योंकि पुरानी लीडरशिप किसान की समस्याओं का समाधान नहीं कर पाए हैं। यह सामुदायिक नेता के खिलाफ भी विरोध है ये नेता उनकी आकांक्षाओं को पूरा नहीं कर पाई है। तीसरा, किसानों को अपनी फसल का न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं मिलता है। सरकार ने अभी तक स्वामीनाथन समिति की अनुशंसा को स्वीकार नहीं किया जिसमें उन्होंने भूमि सुधार, न्यूनतम समर्थन मूल्य (लागत से 50% अधिक), सिंचाई सुधार इत्यादि बाते कही है। यह 2004 में गठित किया गया था तथा इसे नेशनल कमीशन आन फार्मर्स भी कहा जाता है।
इसके आलावा इन तीनो कानून के कई नुकसान होगे पहला, इससे मंडी की व्यवस्था खत्म हो जायेगी। क्योंकि अभी तक व्यापारी सिर्फ मंडियों में ही अनाज या धान खरीदने जाते थे जो कि एमएसपी रेट पर मिलता था लेकिन अब व्यापारी मंडी क्यों जाएंगे जब उन्हें मंडी से बाहर ही गेहूं, चावल मिल जाएगा? इससे किसानों को नुकसान होगा, वे मंडी से बाहर ही किसानों से औने पौने दामों पर उनकी फसल खरीद लेंगे और एमएसपी का कोई महत्व नहीं रह जाएगा। दूसरा, इससे पहले भी, 1950-60 के दशकों से अमेरिका एवं यूरोप सहित कई देशों में इस प्रकार का कृषि मॉडल लागू किया गया लेकिन वह बुरी तरह असफल साबित हुआ. किसानों की आत्महत्या की दर साधारण शहरों में रहने वाले व्यक्ति से काफी अधिक है। इसके अलावा वहां के किसान सरकार के ऊपर निर्भर रहते हैं, यदि अमेरिकी और यूरोपीय सरकार अपने किसानों को सब्सिडी देना बंद कर दे तो वहां का किसान और गरीब होगा।
तीसरा, कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग से बड़े–बड़े पूंजीपति जमीन खरीदेंगे और किसानों से कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग कराएंगे, इससे वे औने पौने दामों पर किसानों से जमीन लेंगे और अंग्रेजी में समझौते करेंगे जो कि किसानों को समझ नहीं आता है। ऐसे उदाहरण पूरे भारतवर्ष में देखे गए हैं, जहां पर समझौते के नाम पर किसानों का शोषण किया गया है।