अंबेडकर की विरासत जाति-विरोधी किसानों के आंदोलन में जीवित है

अंबेडकर की विरासत जाति-विरोधी किसानों के आंदोलन में जीवित है

ऐतिहासिक रूप से कहा जाए तो, भारत में अंबेडकर का योगदान अक्सर संगठित दलित राजनीति की स्थापना से जुड़ा है। अंबेडकर पर विद्वतापूर्ण लेखन ने काफ़ी हद तक ध्यान जातिगत सवाल और सामाजिक न्याय की राजनीति के साथ उनके सहयोग पर केंद्रित किया है। भारतीय संविधान के प्रारूपण में उनका योगदान पहले से ही व्यापक रूप से पहचाना और मनाया जाता रहा है। लेकिन बहुत कम विद्वानों और इतिहासकारों ने एक जनसमूह और एक प्रमुख किसान आंदोलन के नेता के रूप में उनके योगदान को रेखांकित किया है। कोंकण क्षेत्र में खोटीविरोधी आंदोलन में उनकी भागीदारी टोकनवाद से परे थी। उनके नेतृत्व के तहत संगठनों ने (जैसे बहिष्कृत हितकरनी सभा और कोंकण प्रांत शेतकरी संघ) 1930 के दशक में कोंकण क्षेत्र में किसान आंदोलन को महत्वपूर्ण आकार दिया।

परिणामस्वरूप, वे कोंकण में किसानों के एक मज़बूत संगठन का निर्माण करने में सक्षम रहे, जिन्होंने केवल एक बड़े स्तर पर विभिन्न जाति समूहों के किसानों को जुटाया, बल्कि यह भी ज़ोर देने की कोशिश की कि भारत में किसानों की एक लंबे समय तक चलने वाली एकजुटता केवल तभी हासिल की जा सकती है जब सामाजिक प्रश्नों को गंभीरता से लिया जाएगा। उनके द्वारा शुरू किए गए आंदोलन ने 1940 के दशक में बदलती राजनीतिक परिस्थितियों के कारण अपना प्रभाव खो दिया। इसके साथ ही, 1950 में खोटी भूमि कार्यकाल प्रणाली के उन्मूलन के साथ क्षेत्रीय राजनीति का झुकाव भी बदल गया। अंबेडकर के नेतृत्व में खोटीविरोधी आंदोलन ने कई प्रमुख राजनीतिक शख़्सियतों को जन्म दिया, जिन्होंने आगे चलकर 1940 और 1950 के दशक में महाराष्ट्र की राजनीति को आकार दिया।

1930 के दशक में अंबेडकर का इससे जुड़ना कुछ कारणों से शिक्षाप्रद है। पहला, ग्रामीण दलित खेती मज़दूरों को किसानों के साथ जोड़ने का उनका संकल्प, बड़े दमनकारी सामंती (और औपनिवेशिक) सत्ता ढाँचों के खिलाफ़ उत्पीड़ित समुदायों की एकजुटता की स्थापना उनकी व्यावहारिकता को दर्शाता है। दूसरा, उनकी भागीदारी ने इस बात को रेखांकित किया कि समाज में जाति विभाजन को संबोधित किए बिना किसानों की एकजुटता ख़ुद को बनाए नहीं रख सकती है। कोंकण में आंदोलन ने केवल जातिविरोधी आंदोलन में किसानों की आवाज़ को मज़बूत करने में भूमिका निभाई, बल्कि वह दलितकिसान (शूद्र) एकता को सफल करने के लिए अंबेडकर के लिए एक प्रयोगशाला भी बन गई। समानता और एकता पर आधारित चर्चा का आह्वान करने का प्रयास वर्गराजनीति के साथ जातिविरोधी प्रवचन को संरेखित करने के लिए अपने आप में एक क्रांतिकारी कदम था।

तीसरा, आज़ादी के बाद गाँवों की सामाजिक संरचना में उपस्थित जातिगत भेदभाव और दलितों के ख़िलाफ़ अत्याचार और हिंसा के सवाल को लेकर अगड़ी जाति के नेतृत्व वाले किसान आंदोलन ने कभी गंभीरता से कोई प्रयास नहीं किया है। आज़ादी के बाद की अवधि के दौरानकिसान एकताका किस्सा कुछ उल्लेखनीय अपवादों के बावजूद भी किसान जुटाव में पर्याप्त दलित समर्थन को आकर्षित करने में विफल रहा है।

1930 के दशक में अंबेडकर और किसान आंदोलन

किसान आंदोलन में अंबेडकर की भागीदारी 1931 में कोंकण प्रांत शेतकरी संघ की स्थापना के साथ प्रमुख हुई। इस संगठन की स्थापना मूल रूप से अनंत चित्रे द्वारा की गई थी जो अंबेडकर के एक अनुयायी थे। अपनी स्थापना के कुछ ही महीनों में, शेतकरी संघ कोंकण क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण जन आधारित किसान संगठन बन गया। शेतकरी संघ द्वारा प्रकाशित पहले पत्र में संगठन के लक्ष्य स्पष्ट रूप से व्यक्त किए गए थे। यह बाद में अंबेडकर के समाचार पत्र जनता में दिखाई दिया था।

वे मुख्य रूप से दमनकारी खोटी प्रणाली को खत्म करने, भूमि राजस्व के बोझ को कम करने और ग्रामीण साहूकारों द्वारा अनावश्यक दखलंदाज़ी को कम करने के लिए कानून बनाने की मांग पर केंद्रित थे। सबसे महत्वपूर्ण रूप से पैम्फलेट ने इस बात की ओर भी ध्यान किया कि किसान एकजुटता केवल अपनी ताकत और कमज़ोरियों की पहचान करके ही हासिल की जा सकती है। उसमें यह तर्क दिया गया कि उत्पीड़न करने वाले सामान्य ढाँचों की पहचान करके ही विभिन्न जातियों में किसान आंदोलन की ताकत प्राप्त की जा सकती है। दूसरी ओर, पैम्फलेट में यह भी तर्क दिया गया कि किसान आंदोलन की सबसे बड़ी कमज़ोरी जाति थी जिसने दलितों की बड़ी आबादी को हतोत्साहित किया।

इसके चलते, शेतकरी संघ ने 1930 के दशक में अपनी संगठनात्मक सक्रियता में जाति के प्रश्न को लगातार लागू करने के लिए प्रयास किए। दूसरी ओर, 1931 में अपनी स्थापना के बाद शेतकरी संघ की गतिविधियाँ तेज़ी से बढ़ीं। बढ़ता हुआ जनसमर्थन सामंती ज़मींदारों और औपनिवेशिक सरकार के लिए चिंता का कारण था। उग्रवादी विचारों को फैलाने के नाम पर, शेतकरी संघ को सरकार द्वारा 1932 से 1934 तक दो साल के लिए प्रतिबंधित कर दिया गया था। यह अंबेडकर और उनके संगठन द्वारा लिए गए राजनीतिक मुख के महत्व की गवाही देता है। 1930 के दशक की शुरुआत में निषेध और प्रतिबंधों के बावजूद, शेतकरी संघ पूरा दशक किसानों के बीच अपने आप को बनाए रखने में सफल रहा। संकट की इस अवधि में, अंबेडकर ने केवल संगठन को नेतृत्व प्रदान किया, बल्कि अदालत में किसानों का बचाव भी किया। इस प्रकार, किसान प्रतिरोध को विकसित करने में उनकी भूमिका, अंबेडकर की राजनीति के बारे में पारंपरिक ऐतिहासिक कथा की उपेक्षा करती है।

दिलचस्प बात यह है कि किसान आंदोलन में उनकी भागीदारी ने उन्हें हिंदू धर्म के खिलाफ़ एक आलोचनात्मक स्तर लेने से नहीं रोका। 1935 में येओला में उन्होंने प्रसिद्ध रूप से घोषणा की कि वे हिंदू धर्म छोड़ देंगे। अंबेडकर ने 1936 में स्वतंत्र लेबर पार्टी (ILP) की स्थापना की। हालाँकि, दलितों और ग़ैरदलितों के बीच की जातिगत दुश्मनी इस लेबर पार्टी के लिए एक चिंता का विषय बनी हुई थी, लेकिन वे जानते थे कि वे एक विशाल कारण के लिए एक महत्वपूर्ण लड़ाई लड़ रहे हैं। स्वतंत्र लेबर पार्टी द्वारा अपने कार्यक्रम में खोटी भूमि कार्यकाल प्रणाली के उन्मूलन, उद्योगों के राज्य स्वामित्व, मुफ़्त और अनिवार्य शिक्षा और औद्योगिक श्रमिकों के लिए न्यूनतम मज़दूरी का तर्क दिया गया था। 1937 के प्रांतीय चुनावों में, स्वतंत्र लेबर पार्टी (ILP) बॉम्बे प्रेसीडेंसी से 15 सीटें जीतने में सक्षम रही। कोंकण क्षेत्र छह सीटों के साथ ILP के सर्वोच्च प्रतिनिधियों में से एक था, जिसमें अंबेडकर भी शामिल थे, जिन्होंने बॉम्बे शहर से एक सीट जीती थी।

कोंकणी समाज का सामंती ढाँचा और बंबई शहर के साथ इसके जुड़ाव ने आई.एल.पी. और जातिविरोधी किसान परिवर्तनवाद की वृद्धि में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। कोंकण किसानों के बीच पार्टी सर्व प्रियता का संकेत था। अंतर जाति एकजुटता सामान्य आंदोलन के माध्यम से हासिल की गई। नतीजतन, अंबेडकर कोंकण आधारित किसान आंदोलन के निर्विवाद नेता बन गए। 1937 में अंबेडकर ने एक बिल पेश किया जिसमें खोटी भूमि कार्यकाल प्रणाली के पूर्ण उन्मूलन का प्रस्ताव था। इसका समर्थन कोंकणी किसानों के एक बड़े जुलूस ने किया जो जनवरी 1938 में बॉम्बे में आयोजित किया गया। आई.एल.पी. द्वारा आयोजित इस जुलूस में 20,000 से अधिक लोग शामिल हुए थे।

कोंकणी किसानों से अंबेडकर को मिले समर्थन की यह एक और गवाही थी। 1942 में आई.एल.पी. के विघटन के साथ, कोंकण के किसानों के बीच अंबेडकर का प्रभाव धीरेधीरे कम हो गया। हालाँकि, 1930 के दशक ने जातिविरोधी राजनीति पर आधारित कार्यसूची के लिए एक दिलचस्प साँचा प्रदान किया है। 1930 के दशक के अंबेडकरवादी किसानवाद ने दलितों के लिए ग़ैरदलित जनता के साथ गठजोड़ करने के लिए कई रास्ते बनाए। अंबेडकर ने अपने पूरे राजनीतिक जीवन के दौरान ऐसा करने के लिए रणनीतियाँ तैयार करने का प्रयास किया। हालाँकि, आई.एल.पी. एक कम समय का राजनीतिक प्रयोग था जो मुख्य रूप से 1930 के दशक तक ही सीमित था, लेकिन जातिवर्ग के अंतर के प्रभाव ने बाद के दशकों में दलित राजनीति को आकार दिया। 1970 के दशक में, दलित पैंथर्स नामक 1970 में महाराष्ट्र में स्थापित एक संगठन ने अपनी प्रेरणा 1930 के दशक के मज़दूर और किसान आंदोलन से जुड़े अंबेडकर से ली।

 

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