1988 और 2020: दो प्रचंड बहुमत की सरकारें और दो किसान आंदोलन

1988 और 2020: दो प्रचंड बहुमत की सरकारें और दो किसान आंदोलन

जसप्रीत कौर

ग़ाज़ीपुर धरना स्थल (किसान क्रांति गेट) की सड़कों पे चलते जब बजुर्गों से बात करो तो इस बात का एहसास होता है के ये मोर्चा हमारे लिए नयी बात होगी, उन्होंने तो पहले भी आंदोलन किए हैं और सरकारों को झुकाया है। 32 साल पहले या जैसे वो कहते हैं 32 सर्दियाँ पहले आज़ाद हिन्दोस्तान का सबसे बड़ा किसान संघर्ष उत्तर प्रदेश की सड़कों से चल के दिल्ली के बोट क्लब और उसके लॉन तक पहुँचा था और तब की कोंग्रेस सरकार के घुटने टिकवाए थे। 

25 अक्तूबर 1988 में, बी.के.यू. के प्रधान महेन्द्र सिंह टिकैत ने उत्तर प्रदेश के किसानो को दिल्ली चलने की आवाज़ दी थी। पार्लियामेंट का शीतकालीन शुरू होने से कुछ दिन पहले 25 की सुबह सैंकड़ों लोग पहुँचे और देखते ही देखते किसान अपने ट्रैक्टर ट्रॉली, बैल गाड़ी, गाय, भैंस ले दिल्ली के दिल पे जमा होने लगे। लाखों किसान ईस्ट और वेस्ट ब्लॉक और पार्लियामेंट से कुछ दूरी पर राजपथ की सड़कों पे अपना बसेरा डाल कर बैठ गये। तब 24 घंटे वाले न्यूज़ चैनल ना थे, दूरदर्शन और रेडीयो सरकारी था और अब की तरह ही प्रेस को किसानो की माँगो की ज्यादा जानकारी ना थी।

इतनी संख्या में किसानों को देख दिल्ली की जनता हैरान और परेशान थी। किसानो ने बिना कोई समय गवाए वहाँ पहुँचे मीडिया के लोगों को सहजता से अपनी 35 माँगो को क्रमवार समझना शुरू किया। स्टेज से भी लगातार इन माँगो के बारे में बताया जाता। इन माँगो में सबसे अहम थी गन्ने की फसल का सही मुल्य, बिजली और पानी बिल में कन्सेशन, क़र्ज़ा माफ़ी। ये माँगे सरकार के लिए नई ना थी, महेन्द्र सिंह टिकैत इन माँगो के लिए मेरठ के डिविज़नल मैजिस्ट्रेट के दफ़्तर के आगे धरने लगा चुके थे। पर उत्तर प्रदेश सरकार के कान पर जूं तक ना रेंगी और बातचीत के लिए उन्हें लखनऊ बुलाया गया था। उस समय उन्होंने फ़ैसला लिया कि लखनऊ के मुक़ाबले दिल्ली पास है और वहाँ सेंटर की बड़ी सरकार है। अपने गाँव सिशोलि ज़िला मुज़फ़्फ़रनगर से उन्होंने सबको दिल्ली चलने के लिए पुकार दी और सैंकड़ों लोग उनके साथ चलने के लिए तयार हो गए। एक हफ़्ते बाद सरकार ने उनकी माँगे मान ली और अगले वर्ष लोक सभा चुनाव से पहले एन डी तिवारी ने तक़रीबन सारी 35 माँगो को मानते हुए बी.के.यू. के साथ समझोते पर हस्ताक्षर किए। 

देखा जाए तो तब और अब के हालत में बहुत कुछ समान है। तब भी मीडिया सरकारी था आज बिकाऊ है। तब किसानो को परेशान करने के लिए खाना पानी काट दिया गया था, ऊँची आवाज़ में स्पीकरों से अंग्रेज़ी संगीत बजाया जा रहा था ताकि गाये भैंस ड़र जाए और किसान परेशान हो वापिस चले जायें। आज भी किसानो को आने से रोकने के लिए नए नए हथकंडे अपनाए जा रहे हैं। तब भी पूलिस की पहरेदारी थी, आज भी है। तब भी सरकार 404 सीट ले कर पार्लियामेंट में बहुमत में थी, और आज भी 303 सीटों के साथ बहुमत में है। किसान का दर्द, शोषण, तब भी किसी को समझ ना आता था आज भी नहीं रहा हैं। लेकिन तब भी किसान गरीब था आज भी है। तब उत्तर प्रदेश का किसान था आज पूरे भारत का किसान एक है। 

तब सरकारों और लोगों में थोड़ा शिष्टाचार, लोकलाज बाक़ी थी तो हफ़्तों मैं फ़ैसले हो गए। अब की बार संघर्ष लम्बा है, पर जवानो का जोश और बजुर्गो का तजुर्बा सहजता से दोनो मिल कर इस बार भी एक नया इतिहास लिखेंगे।

 

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