हरित क्रांति से पहले कृषि क्षेत्र की स्थिति

हरित क्रांति से पहले कृषि क्षेत्र की स्थिति

ऋचा कुमार

आज़ादी के समय हमारी कृषि विकास दर शून्य थी किसानों की हालत ख़राब थी। 1943 के बंगाल के अकाल में 30 लाख लोगों की मौत हो गयी थी देश के बटवारे में काफी सिंचित ज़मीन भी पाकिस्तान में चली गयी थी। लेकिन आजादी के बाद खेती को एक नया जीवन मिला। इसके मुख्य कारण थे (i) अंग्रेज़ों का शोषण ख़तम होना (ii) ज़मींदारी व्यवस्था का खात्माजिसके कारण काफी परती जमीन पर खेती शुरू हो गयी उत्पादकता और उत्पादन दोनों बढ़े। 

अंग्रेजी सरकार सिंचाई के साधनों और सिंचित ज़मीन पर बहुत कर लगाती थी। इसीलिए किसान सिंचित खेती नहीं कर पाता था। और जो उगाता था उसका भी काफ़ी हिस्सा कर में चला जाता था ऊपर से अंग्रेज़ों के डंडे के डर से किसान मोटे अनाज जैसे खाद्य पदार्थ की खेती के बजाय अफीम, सन, कपास, जो की निर्यात किए जाते थे, उन्हें उगाने पे मजबूर रहता था आजादी के बाद यह सब बदल गया ।अंग्रेजों के समय हमारे सिंचाई के स्त्रोतों का रखरखाव भी खत्म हो गया था भारत सरकार ने बांध बनाए और नहरों से सिंचाई को बढ़ोतरी मिली, इस से खेती में उत्पादकता बढ़ी लेकिन 1956 से हमने गेहूँ का आयात शुरु किया शहरों में PDS (कोटे / राशन) की दुकानों में सप्लाई करने के लिए। यह क्यों किया हमने ?

इसके लिये हमे PDS (कोटे) की दुकानों का इतिहास समझना पड़ेगा अंग्रेज़ों ने द्वितीय विश्व युद्ध के समय राशन व्यवस्था को बनाया था जिस से युद्ध के समय अंग्रेजी सरकार अपने जवानों के लिए पर्याप्त मात्रा में खाद्य सामग्री उपलब्ध करा सकती थी। उसी तहत देश में एक जगह से दूसरी जगह खाद्य सामग्री supply करने पर रोक लगा दी गयी थी सिर्फ अंग्रेजी सरकार के अनुमति से ही सरप्लस प्रांत कमी वाले प्रांतों को खाना सप्लाई करते थे सरप्लस याने वो प्रान्त जो अपनी जरूरत से ज़्यादा अनाज उगाते थे और कमी  मतलब वो प्रान्त जो अपनी जरुरत का अनाज नहीं ऊगा पाते थे (खासकर शहरों में रहने वाले सरकारी नौकरीपेशे लोगों और फैक्ट्री मज़दूरों के लिए ग्रामीण क्षेत्र तो अपना ख्याल खुद ही रखता था।)

किन्तु आज़ादी के बाद यह व्यवस्था ठीक से चल नहीं पाया अलग अलग कारणों से उसी समय अमेरिका एक प्रस्ताव लेकर आया उसके किसानों ने बहुत गेहूं उगाया था और वे मार्किट ढूंढ रहे थे। ऐसे में अमेरिका ने मार्शल योजना के तहत यूरोप में और PL 480 के तहत एशिया और अफ़्रीका में खाद्य पदार्थ, खास तौर पर गेहूं को सप्लाई  किया। PL 480 की खास बात थी की यह हमें लगभग मुफ़्त में मिला था। इसका पैसा हम रुपयों में देते थे (विदेशी मुद्रा या डॉलर की ज़रुरत नहीं थी, जो उस समय हमारे पास पर्याप्त मात्रा में नहीं था) और फिर उन रुपयों को अमेरिका भारत में ही खर्च कर देता था

अगले 10 साल तक अमेरिका ने हमें यह मुफ्त का गेहूं भेजा जिसे हमने अपने PDS में सप्लाई किया जिस से हमारे शहर में बसे लोगों को सस्ता अनाज मिल सका अमेरिकी किसान भी खुश (कि उनका गेहूं बिक रहा है), भारत सरकार भी खुश (कि मुफ्त में गेहूं मिल रहा है), फॅक्टरीवाले भी खुश (कि उनको मज़दूरों को कम वेतन देना पड़ रहा है क्योंकि मज़दूरों को सस्ता अनाज मिल रहा है) योजना आयोग के विशेषज्ञ भी खुश कि देश का औद्योगीकरण हो रहा है जो उस समय विकास का मॉडल माना गया था। खेती करना पिछड़ा काम था और फैक्ट्री बनाना विकास का काम माना जाता था। ये अलग बात है कि PL 480 का किसानों पर उल्टा असर पड़ा पर इन कारणों कि वजह से इस बात पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया गया आयात से इतना सस्ता गेहूं मिल रहा था बाजार में, तो देश में उगने वाले गेहूं की मांग कम हो गयी इससे धीरे धीरे कुछ सालों में देश में गेहूं के दाम गिर गए और किसानों ने गेहूं का उत्पादन कम कर दिया। और तो और क्योंकि शहर में मज़दूरों को सस्ता अनाज मिल रहा था तो बाकि अनाज जैसे ज्वार, बाजरा और मोटे अनाज की भी मांग कम हो गयी और इनके भी दाम गिर गए तो अनाज उगाने वाले किसानों को नुकसान होने पर उन्होंने दूसरी फसलों कि तरफ ध्यान दिया इसका सीधा नतीजा यह हुआ कि देश में अनाज का उत्पादन जोरों से नहीं बढ़ पाया  

इसके कारण इन दस सालों में PDS की सप्लाई के लिए हम अमरीका के अधीन हो गए। अगर अमरीका ऐसे ही अनाज देता रहता तो दिक्कत नहीं आती, लेकिन जब अमरीका ने अपना हाथ वापस खींच लिया तो हम फँस गए। क्योंकि हमने अपने अनाज के उत्पादन की ओर ध्यान नहीं दिया   इस बात पर गौर करना चाहिए कि अमरीका ने इस खाध्य सहायता के ज़रिये कई देशों को अपने अधीन कर लिया था। यह समकालीन विश्व राजनीति में महत्वपूर्ण था क्योंकि अमेरिका और सोवियत संघ के बीच शीत युद्ध चल रहा था। दोनों देश बाकि दुनिया के देशों को अपनी तरफ अपने कैंप में लाने की  कोशिश कर रहे थे। भारत इस लड़ाई में गुट निरपेक्ष रहा लेकिन खाद्य सुरक्षा के मामले में अमरीका की उदारता का फायदा लेता रहा। अमेरिका भी तब तक दानी बनता रहा जब तक उसके किसानों के पास ज़रुरत से ज़्यादा अनाज था और उनको मार्किट कि ज़रुरत थी। लेकिन फिर 1964-65 में अमरीका ने वियतनाम में लड़ाई छेड़ दी जिसका भारत ने समर्थन नहीं किया। इस बात से अमेरिका नाराज़ हो गया कि अमेरिका भारत कि इतनी मदद कर रहा है पर भारत उसका साथ नहीं दे रहा है। 1965 में अमेरिका भारत से इस लिए भी नाराज़ था क्योंकि हमारी पाकिस्तान के साथ लड़ाई छिड़ गयी थी   तब अमेरिकी राष्ट्रपति लिंडन जॉनसन ने हाथ पीछे खींच लिया। उसने कहा कि भारत को अनाज साल भर के कोटे से नहीं मिलेगा। हर महीने भारत भिखारी बनकर आये हमारे पास, हम देखेंगे सोचेंगे और फिर ठीक लगे तो गेहूं भेजेंगे। एक समय हमारे पास केवल तीन महीने की सप्लाई बची थी पूरे PDS के लिए। इसे ship to mouth existence कहा गया 

अब हमें इतनी दिक्कत नहीं आती अगर हम अपने किसानों से गेहूं धान खरीद कर PDS में सप्लाई करते। और हमने यह कोशिश भी कि। 1964 में ही भारतीय खाध्य निगम (FCI) बनाया गया इस काम के लिए। लेकिन FCI ज़्यादा खरीदी नहीं कर पाया और दाम बढ़ने लगे। व्यापारियों ने खरीदी करके माल रोक लिया और मार्किट में आने नहीं दिया। सरकार कुछ नहीं कर पायी। ऊपर से हमने अपनी मार्केटिंग व्यवस्था पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया। मंडियां बनवाई सड़कें।

यहाँ एक बात कहना चाह रही हूँ मैं। परेशानी हमें शहर में मज़दूरों को अनाज देने कि थी ग्रामीण भारत तो अपनी पूर्ती खुद ही कर रहा था। पर क्योंकि हम PL 480 के तहत गेहूं आयात कर रहे थे और अमेरिका के अधीन हो गए थे PDS कि सप्लाई के लिए तो देश विदेश में लोगों ने इसको इस नज़रिये से देखा कि भारत भूखा नंगा है और अपने लोगों के खाने कि आपूर्ति नहीं कर पा रहा है। यह नहीं देखा कि भारत के नीति निर्माताओं ने खुद ही फैसला किया था मुफ़्त का गेहूं अमेरिका से लेने का और उसी का नतीजा था हमारी लाचारी और अमेरिका पर निर्भरता 

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