नवशरण कौर
भारत की सर्वोच्च न्यायालय अचानक महिलाओं के प्रति गहरी चिंता से भर गई है। भारत के मुख्य न्यायाधीश ने 12 जनवरी को किसान आंदोलन के संधर्ब पर चल रही बहस के दौरान कहा, “ हम यह बात रिकॉर्ड पर रखना चाहते हैं कि महिलाओं, बुजुर्गों और बच्चों को भविष्य में विरोध प्रदर्शन में भाग नहीं लेना चाहिए।” मुख्य न्यायाधीश ने वरिष्ठ वकील फूलका से कहा कि वे महिला और बुजुर्गों को घर भेजने के लिए अदालत का संदेश किसान नेताओं को दें।
अदालत की समझ के अनुसार, किसान नेता, जो केवल पुरुष हैं, जब वे दिल्ली के मोर्चे पर आए तो सामान के साथ साथ कुछ महिलाओ को भी लेते आए। अब अदालत ने उन्हें संदेश दिया है कि जो महिलाएं आप अपने साथ ले आए हो, उन्हें घरों को वापस कर दिया जाना चाहिए क्योंकि यहाँ बहुत ठंड है। वैसे भी महिलाओं का कृषि क़ानूनों से क्या वास्ता? यहाँ उनका क्या काम?
अदालत ने हमारी नेता बहन जसबीर कौर नत्त को कभी देखा या सुना नहीं है, न ही हरिंदर कौर बिंदू, न ही बहादुर बेबे महिंदर कौर और न ही सैकड़ों अन्य महिलाओं को जो मोर्चे पर डटी हुई हैं, जिन्होंने कृषि कानूनों पर चर्चा की है, मंच संभाला है, बारिश और ठंडी सर्द रातों में नारे लगाए, जागो निकाली, गीत गाए, सरकारों को धिक्कारते नई बोलिआ गाई और किसान आंदोलन को अपना कंधा दिया है।
सरकारें और अदालतें महिलाओं के नेतृत्व और आंदोलनों में भागीदारी क्यों नहीं देखती हैं? अदालत की टिप्पणी खेदजनक है लेकिन यह पहली बार नहीं है कि सत्ता और कोर्ट ने महिलाओं को गैर ज़रूरी सामान के रूप में देखा हो जो पुरुष अपने साथ उठाते लाए है। उनके अनुसार महिलाओ की न तो अपनी कोई राय है, न ही समझ। आप सब को याद ही होगा कि ठीक इन्ही दिनों पिछले साल देश एक ऐतिहासिक लोकतांत्रिक आंदोलन से गुजर रहा था। दिसंबर 2019 में मुसलमानों के खिलाफ भेदभावपूर्ण नागरिकता कानून पारित करने के विरोध में लाखों आम लोग सड़को पर उतर आए थे। इन सामूहिक विरोध प्रदर्शनों में मुस्लिम महिलाओं की भारी भागीदारी थी, जो पहले दिल्ली के शाहीन बाग और फिर पूरे देश में फैल गई। महिलाओं के नेतृत्व में, हमारा देश ने नागरिकता की एक नई अवधारणा को महसूस कर रहा था। सरकार और हिंदुत्व के प्रतिनिधियों ने उस समय भी यही कहा कि महिलाएँ घरेलू हिंसा, बलात्कार या छेड़छाड़ के खिलाफ मोर्चे निकाले तो समझ में आता है, नागरिकता जैसे मुद्दों से उनका क्या लेना देना? उन्हें बरगला कर सड़के रोकने के लिए लाया गया है। यह भी कहा गया की विपक्ष द्वारा उन्हें यहां बैठने के लिए पैसे दिए जाते है। सरकार और उनके द्वारा बिठाई कमेटिओं ने औरतों को घर लौटने की सलाह दी।
पर हम जानते है कि नागरिकता कानून के विरोध में महिलाओं ने सार्वजनिक क्षेत्र पर अपना कब्ज़ा बनाए रखा और नागरिकता जैसे राजनीतिक एजेंडे के साथ गहराई से लड़ाई लड़ी। उन्होंने संयुक्त बैठकों में भारतीय संविधान को पढ़ा, भाषण दिए, नारे लगाए और झंडे लहराए। कठोर सर्दियों के महीनों में, भारी बारिश के दौरान, धमकियों और पुलिस का सामना किया, लेकिन उन्होंने उठने से इनकार कर दिया। और जब शाहीन बाग आंदोलन को कुचल दिया गया, तो कई महिलाओं को दंगे करने की साजिश के झूठे आरोपों में संगीन धाराएं लगा कर जेलों में बंद कर दिया गया।इसलिए ऐसा नहीं है कि आंदोलन में महिलाओं की भागीदारी एक नई चीज है और सरकारों और अदालतों को इसकी जानकारी नहीं है। वे अच्छी तरह जानते हैं कि महिलाएं संघर्षो में शामिल हैं, पर पितृसत्तात्मक सोच उन पर हावी है और वे सार्वजनिक क्षेत्र में महिलाओं के दावे को नकारना चाहते है। महिलाओं को एक नागरिक होने और जवाबदेही हासिल करने के अधिकार को पूरी ताकत से रोकना चाहते है। आज महिलाएं न केवल सभी प्रकार के संघर्षों में शामिल हैं, बल्कि संघर्षों का नेतृत्व कर रही हैं, और लड़ाई की कीमत भी चुका रही हैं। सुधा भारद्वाज, नताशा नरवाल और इशरत जहां जैसे हमारे प्रिय साथी आज जेलों में बंद हैं। उन पर बोगस संगीन इल्ज़ाम लगाए गए है। कई महिला कार्यकर्ताओं की जमानत की अर्जी इन्हीं अदालतों ने खारिज की है।
महिला किसान दशकों से सार्वजनिक क्षेत्र में हैं। वे कृषि, फसल प्रबंधन, पशुपालन और डेयरी में बराबर की हिस्सेदारी रखती हैं। कर्ज की मार खाए किसान मज़दूर परिवारों की पीड़ा औरते भी झेल रही है। आत्महत्या कर गए किसानों में परिवारों की देखभाल महिलाएं ही कर रही है। वह परिवार, खेती, कर्ज़े – सभी से जूझ रही है। इतना ही नहीं वह पीड़ित परिवारों के संगठन भी बना रही है ताकि सरकार और अधिकारीयों से इन संस्थागत हत्याओं का हिसाब मांग सके। पंजाब के कई हिस्सों में दलित महिला किसान पंचायत की शामलाट भूमि के समान वितरण की मांग कर रही हैं, और एक तिहाई शामलाट भूमि पर दलितों के कानूनी अधिकारों के लिए लड़ रही हैं, पुलिस और सरकारी दमन और गाँव के बड़े भूमिपतिओ द्वारा उत्पीड़न और बहिष्कार का सामना कर रही हैं। इन महिलाओ ने भूमि अधिग्रहण के लिए संगठनों का गठन और नेतृत्व किया है।
यह महिला किसान ही हैं जो किसानों के अस्तित्व पर हमले के खिलाफ आज दिल्ली के अखाड़े में उतरी हैं। इस किसान आंदोलन में किसान महिलाओ ने भी जानें गंवाई हैं और मजदूर मोर्चे की नेता बहन भी हम से बिछड़ी है। सिंघु और टिकरी बार्डर पर महिलाएं भूख हड़ताल समूहों में शामिल हैं, लंगरों में सेवा कर रही हैं, और प्रेस में बयान दे रही हैं। यह महिलाओं की सशक्त उपस्थिति है जो अदालत को परेशान कर रही है। यह बेहद निंदनीय है कि आज किसानों के रूप में महिलाओं के अस्तित्व को नकारते हुए, उन्हें घर लौटने का बेतुका सुझाव दिया जा रहा है।
हमें उन किसान संगठनों पर गर्व है जिन में महिलाओं की समानता के मुद्दे खुले है, जिसमें महिलाओं को समान नागरिक और संघर्ष में बराबर का भागीदार होने का एलान किया गया है । ये संगठन दूसरों के लिए एक मिसाल कायम कर रहे हैं। हम महिलाओं को पता है कि लड़ाई लम्बी है और मुद्दे जटिल हैं। लेकिन महिलाओं का राजनीतिक क्षेत्र में प्रवेश हो चुका है और वह पुराने सवालों को नए तरीकों से खोल रही हैं। उनके आगमन ने लंबे समय से चले आ रहे सामाजिक संतुलन को भी हिलाया है। जाति का सवाल भी अलग ढंग से खुलना शुरू हो रहा है। महिलाओं के शारीरिक शोषण के मुद्दे पर दलित और अन्य जातियों की महिलाओं के संयुक्त संघर्ष के उदाहरण सामने आ रहे हैं। इन संयुक्त संघर्षों में जाति से जुडी ग्रामीण समाज की एक जटिल, कुरूप गाँठ के खुलने की संभावना जन्म ले रही है। किसानों और श्रमिक संगठनों में महिलाओं का प्रवेश संगठनों में नए अनुभव जोड़ रहा है और नई संभावनाओं के साथ–साथ संगठनों की समझ और नीति के लिए नए प्रश्न खोल रहा है। किसान महिलाएँ इस संघर्ष के मैदान में पूरी तरह उपस्थित है।
माननीय उच्च न्यायालय, अब हमारे लिए घर लौटना मुमकिन नहीं।