एम. बोस
क्या आपको सिंघु विरोध स्थल पर दिल्ली पुलिस की अपने जूते से एक व्यक्ति के चेहरे को कुचलती हुई भयानक तस्वीर याद है? क्या पंजाब के नवांशहर से उस 22 वर्षीय, रणजीत सिंह नामक व्यक्ति को न्याय मिला? नहीं, नहीं मिला। इसके विपरीत, रणजीत सिंह हत्या करने के प्रयास और दंगों के आरोप में जेल में हैं। तमाम सबूत विडीओ के रूप में यह दिखलाते हैं कि हमलावर रणजीत नहीं थे, बल्कि उन पर हमला किया जा रहा था। रणजीत के खिलाफ़ एफआईआर और उनके बारे में पुलिस के बयानों में कई विसंगतियाँ थीं जो न्यूज़लॉंड्री की निधि सुरेश द्वारा एक लेख में स्पष्ट रूप से सामने लाई गईं हैं – फिर भी, जिस तरह हमें उम्मीद थी, पुलिस के वर्ज़न की विसंगतियों को अधिकांश मुख्यधारा के मीडिया ने अनदेखा कर दिया, जिनकी निष्ठा मोदी सरकार के प्रति है ना की सच के प्रति। रणजीत की दुर्दशा मुझे कवि आमिर अज़ीज़ की एक पंक्ति की याद दिलाती है,
“हम ही पर हमला कर हमें हमलावर बताना,
सब याद रखा जाएगा”।
यह केवल रणजीत की बात नहीं है। किसानों द्वारा इस आंदोलन के दौरान और मोदी सरकार के विरुद्ध अन्य आंदोलनों में भी, इंसाफ़ की परिभाषा को शीर्षासन करा दिया गया है। जहाँ बेक़सूर आज़ाद होने के लिए संघर्ष कर रहे हैं, और दोषी खुलेआम घूम रहे हैं। नवंबर 2020 में, 26 वर्षीय नवदीप सिंह ने पुलिस की वॉटर केनन को बंद किया जिसके चलते उन पर हत्या का प्रयास करने का ग़ैर–कानूनी आरोप लगाया गया। लेकिन सरकार समर्थक लोग जिन्हें भ्रामक रूप से मुख्यधारा के मीडिया द्वारा “स्थानीय लोग” दिखाया है, जो कि 28 जनवरी को सिंघु मोर्चे में प्रवेश करते हुए कथित तौर पर हिंसा किए, उनकी पुलिस द्वारा गंभीरता से कोई जाँच नहीं की गई। द वायर और ऑल्ट न्यूज़ जैसे मीडिया प्रकाशनों ने अपनी रिपोर्टों द्वारा पहचान करवाई कि इनमें से कई भाजपा तथा हिंदू सेना और सुदर्शन वाहिनी जैसे हिंदुत्ववादी संगठनों के सदस्य थे, न कि “स्थानीय लोग” जैसा उन्हें अधिकांश मुख्यधारा के मीडिया द्वारा बताया जा रहा था।
जिस प्रकार प्रदर्शनकारियों के खिलाफ़ सरकार का कई तरीकों से हमला जारी हैं, फ़िर चाहे टूलकिट के बारे में बेहूदा दावों और रिहाना और ग्रेटा द्वारा ‘अंतरराष्ट्रीय साज़िशें’ हों, या फ़िर रणजीत सिंह, नवदीप सिंह, नौदीप कौर और मनदीप पुनिया जैसे बेगुनाहों के खिलाफ़ एफआईआर करना हो – हम ऐसी स्थिति में हैं जहाँ हमारी माँगें इनके बचाव और रिहाई की है। मूल मुद्दे तो कहीं पीछे छूट जा रहे है। मेरा मतलब इनकी रिहाई के मुद्दे को नज़रअंदाज़ करना नहीं है, लेकिन क्या इंसाफ़ ऐसा होता है? सरकार द्वारा किए गए हमलों से निर्दोष लोगों को मुक्त कराने की लड़ाई में हम इतना उलझ गए हैं कि हमारी माँगों में अक्सर दोषी को दंडित करने की माँग मुखर नहीं रहती।
उदाहरण के तौर पर, कार्यकर्ता नौदीप कौर और शिव कुमार को हिरासत में प्रताड़ित किया गया और उन्हें मारा–पीटा भी गया है, और उन पर हुई हिंसा उनकी मेडिकल रिपोर्ट में निर्णायक रूप से सामने आई है। जबकि नौदीप की रिपोर्ट में बताया गया कि उनकी जांघ पर चोट के नील हैं और नितम्बों पर भी चोटों के निशान हैं। शिव की रिपोर्ट में दर्ज किया गया कि उन्हें कई चोटें आई हैं, जिसमें कम से कम दो फ्रैक्चर, उनके पैरों की सूजन, उनके बाएँ पैर की अंगुली पर कालापन, दो टूटे हुए नाख़ून, आदि। पुलिस द्वारा हिरासत में हिंसा के सभी सबूतों के बावजूद, हरियाणा पुलिस ने अभी तक इतना भी नहीं किया कि कम से कम मामले की जाँच की घोषणा की जाए। यह बेहद ज़रूरी है कि हमारी माँगें केवल निर्दोष प्रदर्शनकारियों की रिहाई तक ही सीमित न रहें, चाहे वे हम में से कितने ही लोगों को गिरफ़्तार कर लें। हमें साथ में यह भी माँग करनी चाहिए कि इन करतूतों को अंजाम देने वालों को दंडित किया जाए, चाहे वह 28 जनवरी को सिंघु सीमा पर आए नक़ाबी प्रदर्शनकारी गुंडे हों या फ़िर रणजीत को कुचलने वाले, शिव को पीटने और नौदीप पर हमला करने वाले वर्दी पहने कर्मचारी हों। हमें इनकी स्वतंत्र जाँच की माँगों के लिए एकजुट होना पड़ेगा।
हाँ, इन अत्याचारों को कभी नहीं भुलाया जाएगा। लेकिन केवल इन्हें याद रखना पर्याप्त नहीं है। हमें इंसाफ़ के सही मायने के लिए लड़ना होगा, ना कि जैसा सरकार चाहती है, जहाँ हमारा लक्ष्य केवल बेक़सूरों को छुड़वाने तक ही सीमित रह जाए। इसके बजाय, चाहे वक्त कितना भी मुश्किल क्यों ना हो दोषियों को सजा दिलाने की माँग करनी चाहिए, और सत्ता को जवाबदेह ठहराया जाए। यह एक आसान माँग नहीं है, लेकिन इस दौर में कौन सी लोकतांत्रिक लड़ाई आसान है। पिछले कुछ महीनों में लोगों ने एकजुटता दिखाई और यह बताया कि संगठित–शिक्षित होकर आंदोलन करना ही इंसाफ़ पसंद समाज की ज़रूरी शर्त है।