1907 में पगड़ी संभाल जट्टा आंदोलन और 2020 से जारी किसानों के विरोध प्रदर्शनों के बीच समानताएँ
इतिहास कई अर्थों में ख़ुद को दोहराता है। बहुत बार अतीत में हुई घटनाओं के आईने में हमें वर्तमान दिखाई देता है। शायद इसी लिए, स्वतंत्रता–पूर्व पंजाब में ब्रिटिश शासकों द्वारा भूमि के उपनिवेशिकरण के विरुद्ध चले ‘पगड़ी सम्भाल जट्टा’ आंदोलन और भारत की राजधानी नई दिल्ली की सीमाओं पर वर्तमान में चल रहे किसानों के आंदोलन में हमें समानताएँ दिखाई देती हैं। इन दोनों आंदोलनों का जन्म मिलते–जुलते कारणों से हुआ। दोनों की उत्पत्ति के मूल में वे अंतर्विरोध हैं जो बाज़ार की ओर झुकाव वाले कृषि–विकास के मुद्रीकृत पैटर्न से पैदा हुए। इस स्थिति में जहाँ एक ओर खेती से जुड़े चंद सरमाएदारों को तो बहुत भारी आर्थिक लाभ मिलता है वहीं गाँवों के एक बड़े वर्ग को बढ़ते संकट, बहुत ही निम्न स्तर के विकास और क़र्ज़दारी के साथ रहना पड़ता है।
‘पगड़ी संभाल जट्टा’ आंदोलन पंजाब में अंग्रेज़ी शासन के ख़िलाफ़ पहला बड़ा आंदोलन था। अंग्रेज़ों ने 1849 में पंजाब पर क़ब्ज़ा किया था और 1907 में उन्होंने पंजाब भूमि उपनिवेशण अधिनियम (पंजाब लैण्ड कॉलोनाइज़ेशन एक्ट) पारित किया था। इस पूरे दौर में पंजाब राजनैतिक रूप से एक निष्क्रिय क्षेत्र बना रहा था और अंग्रेज़ों ने सचेत रूप से यहाँ के किसानों को ख़ुश रखने की नीति अपनाई थी। इस के पीछे मंशा यह थी कि राजनैतिक तौर पर एक वफ़ादार, विश्वासपात्र सहारे की बुनियाद डाली जाए, भूमि से होने वाली आय को अधिकतम किया जा सके और सैन्य भर्ती के लिए मदद मिल सके। 1887 में नहर–कालोनियों के निर्माण के बाद, बड़ी संख्या में किसानों और सेवानिवृत्त सैनिकों को “किसान अनुदान” दिए गए। उन्हें अमृतसर, गुरदासपुर, सियालकोट तथा हशियारपुर जैसे ज़िलों से लायलपुर में नए सिरे से आबाद होने के लिए प्रोत्साहित किया गया। वादा किया गया कि उन्हें नई सिंचाई सुविधाओं और आधुनिक उपकरणों से लैस उपजाऊ ज़मीन दी जाएगी। इस घटनाक्रम का स्वागत पंजाब की पहली “हरित क्रांति” की शुरुआत के रूप में हुआ।
लेकिन फिर 1907 में ब्रिटिश सरकार जल्दबाज़ी में कृषि क़ानूनों की एक लड़ी ले कर आई। क़ानून बनाने के सिलसिले में आम तौर पर जिन प्रक्रियाओं का पालन किया जाता है, उन्हें दरकिनार किया गया – ये क़ानून ज़िला अधिकारियों और राजस्व विशेषज्ञों से उचित परामर्श किए बिना ही पारित कर दिए गए थे। बहुत ही बुनियादी किस्म के बदलाव लाने वाले इन क़ानूनों ने नहर–कालोनियों में बसे किसानों के मालिकाना अधिकारों को ख़तरे में डाल दिया – उन के इन अधिकारों को पूर्व प्रभाव से (यानी पिछले समय से) लागू होने वाली कुछ शर्तों के साथ जोड़ दिया गया था। उदाहरण के लिए, यह शर्त लगा दी गई कि अगर एक ज़मींदार की मौत हो जाती है, और उस का कोई पुत्र नहीं है, तो उस की ज़मीन का मालिकाना ज़िला अधिकारियों के पास आ जाएगा। पानी के दाम भी बहुत बढ़ा दिए गए थे और विवादों के निपटारे का एकमात्र अधिकार ज़िला अधिकारियों को दे दिया गया था। यह भी मान लिया गया था कि ये मामले सिविल अदालतों के अधिकार–क्षेत्र में नहीं आएँगे। इन क़ानूनों से किसानों का एक बड़ा हिस्सा पीड़ित हुआ। ये किसान बहुत ज़्यादा कर्ज़दारी और थमे हुए आर्थिक विकास की वजह से काफ़ी हद तक आर्थिक संकट का सामना कर रहे थे। बार ज़मींदार एसोसिएशन, अंजुमन–ए–मुहब्बीन–वतन और सिंह सभा जैसे अलग–अलग संगठनों के एक समूह ने इन कृषि–बिलों का व्यवस्थित विरोध शुरू कर दिया। यह आंदोलन सच में ग़ैर–साम्प्रदायिक प्रकृति का था। अंग्रेजों की इन नीतियों के विरुद्ध लड़ने के लिए हिंदू, मुस्लिम और सिख किसान एकजुट हो गए थे। पंजाबी समाज के अन्य वर्ग, जैसे कि छोटे ज़मींदार, पूर्व–सरकारी अधिकारी और बुद्धिजीवी भी इस संघर्ष में शमिल हो गए। बड़े पैमाने पर लोगों को शामिल करते हुए सभाओं का आयोजन किया गया और क़ानूनों के ख़िलाफ़ प्रस्ताव पारित किए गए। एक प्रमुख ज़मींदार सिराज–उद–दीन अहमद ने लोगों को इन के बारे में जागरूक करने के मक़सद से “ज़मींदार” अख़बार निकालना शुरू किया। 22 मार्च 1907 को 9000 से भी ज़्यादा किसान विरोध में लायलपुर में एकजुट हुए। यहाँ अजीत सिंह (भगत सिंह के चाचा) और लाला लाजपत राय ने उत्साहपूर्ण भाषण दिए। बांके दयाल ने ‘पगड़ी सम्भाल जट्टा’ कविता पढ़ी और किसानों के लिए स्वाभिमान के प्रतीक पगड़ी के हवाले से आह्वान करते हुए, किसानों को उन के अधिकारों के लिए खड़े होने का सीधा–स्पष्ट सन्देश दिया। समय के साथ यह कविता आंदोलन का पर्याय बन गई।
इस के बावजूद, पंजाब में सरकार ने इन प्रदर्शनों को गम्भीरता से नहीं लिया और ग़लती से यह मान लिया कि इन में शहरी राजनेताओं के एक छोटे से वर्ग द्वारा “बिल को ग़लत तरीके से पेश करने” से ज़्यादा कुछ नहीं है। उपनिवेशीय सरकार को पक्का विश्वास था कि पंजाबी किसानों पर उन का ज़बरदस्त दबदबा और प्रभाव है – ऐसा, कि जिसे हिलाया नहीं जा सकता। लेकिन यह आंदोलन फैलता चला गया और लगातार मज़बूत होता गया। पूरे पंजाब में नए सिरे से प्रदर्शन होने लगे। अजीत सिंह और लाला लाजपत राय ने संयुक्त प्रांतों में यात्राएँ आयोजित कीं और पूरे ज़ोर–शोर से ब्रिटिश माल के बहिष्कार और नए जल–शुल्कों का अनुपालन न करने का अभियान शुरू कर दिया। तब पंजाब के लेफ़्टिनेंट–गवर्नर डेन्ज़िल इब्बट्सन ने कुछ संशोधन प्रस्तावित किए और नए जल–शुल्क को एक साल तक स्थगित करने का प्रस्ताव भी रखा। लेकिन विरोध प्रदर्शनों की गति फिर भी धीमी नहीं हुई। बल्कि लाहौर, अमृतसर और रावलपिंडी जैसे कई शहरों में उपद्रव हुए।
ब्रिटिश प्रशासन ने अब इस आंदोलन को ख़त्म करने का फ़ैसला लिया और अजीत सिंह तथा लाला लाजपत राय को बर्मा में मांडले जेल में निर्वासित कर दिया। सार्वजनिक सभाओं पर प्रतिबंध लगाने के साथ–साथ प्रिंटिंग प्रेस पर भी सख़्त नियम लागू कर दिए गए। इस के बावजूद, विरोध–प्रतिरोध जारी रहा और समाज के अन्य वर्गों में भी फैलने लगा। रेलवे कर्मचारियों के बीच हड़ताल हुई और भारतीय सेना में असंतोष फैल गया। सिख सैनिक कुल ब्रिटिश सेना का एक–तिहाई थे और डर था कि सेना में विद्रोह हो सकता है। नतीजतन, भारत के वायसराय लॉर्ड ग्रेगरी मिंटो को यह मानने के लिए मजबूर होना पड़ा कि भूमि उपनिवेशण विधेयक “एक ख़राब क़ानून” था। इन कृषि–कानूनों को ख़ारिज कर दिया गया और कृषि सुधारों पर एक नई समिति गठित की गई। यह बिल–विरोधी आंदोलन पंजाब के लिए ऐतिहासिक साबित हुआ और इस के बाद के सालों में पंजाब भारत के स्वतंत्रता संग्राम में आगे–आगे रहा : ग़दर आंदोलन, बब्बर अकाली आंदोलन और भगत सिंह के क्रांतिकारी साम्राज्यवाद–विरोधी संघर्ष जैसे क्रांतिकारी आंदोलन इस बात की गवाही देते हैं।
आज एक सदी बाद, पगड़ी संभाल जट्टा आंदोलन के सरोकारों की गूँज फिर से सुनाई दे रही है और हज़ारों किसान सरकार द्वारा लागू किए गए तीन नए कृषि क़ानूनों का विरोध कर रहे हैं। सत्तर दिनों से भी ज़्यादा हो गए, प्रदर्शनकारियों का मोर्चा कड़ाके की सर्दी में अब भी दिल्ली की सीमाओं पर लगा हुआ है। पहले की औपनिवेशिक सरकार की ही तरह, वर्तमान में भी इन क़ानूनों को संसदीय परामर्श और विचार–विमर्श की उचित प्रक्रिया का पालन किए बिना अध्यादेश के माध्यम से पारित किया गया है। किसानों को डर है कि खेती का बेलगाम कम्पनीकरण करने वाले ये नए कृषि क़ानून उन्हें बाज़ार की ताक़तों की सनक के हवाले कर देंगे जब कि फ़सलों के पक्के दाम सुनिश्चित करने के लिए उन्हें कोई भी क़ानूनी संरक्षण नहीं मिलेगा। इन क़ानूनों का विरोध करने वाले ये बहादुर–दिल प्रदर्शनकारी बरसों की आर्थिक हताशा और अपमान अपने साथ ले कर आए हैं। भारत की 19% से अधिक राष्ट्रीय आय कृषि से होती है और देश की श्रम–शक्ति का 50% से भी ज़्यादा रोज़गार कृषि–क्षेत्र में है। इस के बावजूद हर गुज़रते साल के साथ आजीविका के साधन के रूप में खेती कम कारगर होती चली गई है। किसानों को डर है कि प्राइवेट मण्डियों के आने से उन की पहले से ही कम आय पर और अधिक आँच आएगी। कई किसान इन क़ानूनों को खेती–किसानी के लिए “मौत का वारंट” मानते हैं। प्रदर्शनकारियों के साथ वर्तमान भारत सरकार का व्यवहार भी हमारे पूर्व औपनिवेशिक शासकों वाले नज़रिए को ही दर्शाता करता है। सरकार ने भारतीय जनता के एक बड़े हिस्से की आजीविका सम्बन्धी इन गम्भीर चिंताओं को दूर करने की ईमानदार कोशिश नहीं की है। इस के बजाय, पहले तो सरकार ने इन विरोध–प्रदर्शनों को विपक्षी दलों का काम बताते हुए ख़ारिज कर दिया, और कहा गया कि वे कृषि क़ानूनों के बारे में ग़लत जानकारी फैलाने की कोशिश कर रहे हैं। बाद के दिनों में प्रदर्शनकारी किसानों को बदनाम करने के लिए बड़े पैमाने पर अभियान चलाते हुए उन्हें राष्ट्र–विरोधी करार दिया गया। फिर भी, इन विरोध–प्रदर्शनों ने और भी ज़्यादा ज़ोर पकड़ा है और भारत के अलग–अलग हिस्सों में फैल गए हैं। अब इन प्रदर्शनकारी किसानों पर अंकुश लगाने के क्रूर प्रयास किए जा रहे हैं। भारी बैरिकेडिंग कर के, कंटीली तारें लगा कर और ज़मीन में गाड़े गए कीलों के साथ–साथ बड़े पैमाने पर पुलिस तैनात करते हुए प्रदर्शन–स्थलों को मानो जेल में तबदील कर दिया गया है। प्रदर्शनकारियों की इंटरनेट सेवाएँ, बिजली और पानी की सुविधाएँ भी काट दी गई हैं।
इतिहास गवाह है कि लोकतांत्रिक आंदोलन पर डरा–धमका कर अंकुश नहीं लगाया जा सकता। यह आंदोलन लम्बे समय तक चलने वाला है।