शिवम मोघा
प्रश्न–कृषि के क्षेत्र में जो बाजारीकरण है, उसमें आपको क्या गलत लगता है?
उत्तर– कॉरपोरेटाइजेशन के कई मतलब हो सकते हैं खेती पहले किसान करता है वह किसान ही करता रहे लेकिन किसान अपने लिए खेती ना करें उसको कोई बताए इसको कॉर्पोरेट फार्मिंग का एक तरीका बोलते हैं वह फिर काफी सारे किसान रिक्रूट हो जाएंगे हालांकि उनके पास जमीन अपनी रहेगी लेकिन खेती के फैसले कंपनी अपने हिसाब से कराएगी और उस हिसाब से उनका फिर वो रेट भी तय करेंगे। किसानों की होटलों में चली जाएगी और दूसरा कॉरपोरेटाइजेशन का यह मतलब हो सकता है कि किसान अपनी जमीन बेच दे और बड़े–बड़े फार्म और जैसे अमेरिका में हुआ है वह थोड़े से लोग हैं जो सारी खेती कंट्रोल करते हैं लेकिन वहां खेती के लिए कोई प्रॉब्लम भी नहीं है जमीन बहुत ज्यादा है और लोग करना भी नहीं चाहती लोगों को रोजगार और जगह भी मिल जाता है विकास करने के लिए खेती का कोटेशन होना जरूरी नहीं है दूसरी बात यह है कि खेती में इन्वेस्टमेंट की जरूरत है वह सबको मालूम है जैसे आपको कोल्ड स्टोरेज चाहिए अगर आपको सब्जी मार्केट बनानी है सब्जियों को रखने के लिए स्टोरेज अलग किस्म का होता हैं।
लेकिन अगर स्टेट मिलकर फार्मर्स के कोऑपरेटिव्स बनाएं और वह जो कॉरपोरेटिव हैं वो इस बात पर नज़र रखें कि किस चीज की कितनी डिमांड हैं और उसके बेस पर वो किसानो को बताएँ कि आप यह उगाएं और यह मत उगाएं और साथ में उनको कंसल्टेंसी दी जाएँ, बहुत सारे रास्ते हैं लेकिन वो सब छोङकर आप यह कहें कि मार्केट तय करेगी तो वह बहुत अजीब चीज हैं , आप चंद लोगों को कृषि की जिम्मेदारी दे देंगे तो फिर कॉर्पोरेट्स अपने हिसाब से करेंगे क्यों कि उनको तो मुनाफा चाहिए तो ऐसा करने के जो परिणाम होंगे वह किसानो के लिए नकारात्मक होंगे। किसानो का अपनी खेती पर से कंट्रोल जाता रहेगा लेकिन फिर किसानो का कोई महत्व रह नही जायेगा।
प्रश्न– ग्रीन रेवोल्यूशन के बाद जो पंजाब, हरियाणा और वेस्ट यूपी में अगर कोई राजनीतिक, सामाजिक बदलाव हुआ हों तो आप बताएँ?
उत्तर– सबसे पहली बात यह हैं की हम किसानो के लिए फार्मर और पीसीएंट् इस्तेमाल करते हैं लेकिन दोनो की डाईनमिकस् अलग हैं लेकिन जो आंदोलन 1920 से आजादी के बाद तक भी रहा वो जमीन को लेकर थे, जमीनी पर मालिकाना अधिकार को लेकर थे, टेनेंसी बहुत सहज नही थी, ये सब आंदोलन पीसेन्ट्री के आंदोलन थे लेकिन जो 1980 के बाद आंदोलन शुरू होते हैं जो ग्रीन रेवोल्यूशन के बाद हुयें, उस समय किसानो की आय बढ़ रही थी, तो ज्यादा दिक्कत किसानो को नही हुईं, फसल बिक जाती थी, कई बार मार्केट के दाम मंडी के समर्थन दामों से ज्यादा होते थे, लेकिन इनपुट कोस्ट ज्यादा आने लगा तो किसान आंदोलन का सवाल जमीन से हटकर सही मूल्य की तरफ हो गया।
प्रश्न– सरकार अगर किसानो को अपना दुश्मन बना रही हैं तो उनका क्या फायदा हो रहा हैं?
उत्तर– हर सरकार का अपना एक नज़रिया होता हैं कि किस तरह से सरकार चलानी हैं तो देश का एक पुराना ढांचा हैं जो संविधान के आस– पास हैं, प्रजातंत्रिक देश बनाने की बात होती हैं, प्रजातंत्र में सामाजिक आंदोलनों का सकारात्मक रोल होता हैं, आंदोलन सोसाइटी की समस्या को दर्शाते हैं और सरकार का फ़र्ज़ बनता हैं कि इन आंदोलनों का फायदा उठाकर देश को आगे बढ़ायें लेकिन ऐसा होता अभी दिख नही रहा हैं, दूसरी तरफ सरकार इस आंदोलन को दबाने की कोशिश कर रही हैं तो जाहिर है की वो बड़े पूंजीपतियों के फायदे को बढ़ावा दे रही हैं, इससे समाज में आपसी असहजता बढ़ेगी, अगर मैं एक समाजशास्त्री और भारत के नागरिक की हैसियत से देखूं तो यह कोई अच्छी चीज नही हैं और आगे चलकर इसका नुकसान सबको होगा, पूंजीपतियों को भी अगर अपना फायदा करना हैं तो उनको मार्केट चाहिए, मार्केट में लोग चाहिए और लोगों की जेब में पैसे होने चाहिए। अगर किसान मजबूत होता हैं तो किसान कार भी खरीदेगा, कपड़े और अच्छे रहन– सहन पर खर्च करेगा तो उसका फायदा तो इंडस्ट्रीज को ही होगा, तो यह ज़ीरो– सम गेम नही हैं कि हमारा फायदा होगा की उनका फायदा होगा, समाज टूट जायेगा तो मार्केट भी नही चलेगी, सरकार को समझ नही हैं और इसमे नुकसान सबका होगा।
प्रश्न– पंजाब के संदर्भ में दलित मजदूर का सवाल मेनस्ट्रीम सवाल हैं क्या लेकिन पंजाब में दलित खेत मजदूर इस आंदोलन के समर्थन में हैं?
उत्तर– आंदोलन समाज में काफी सारे परिवर्तन लाते हैं, यह मैं पहली बारी देख रहा हूँ की इस आंदोलन में जाति के सवाल को मुख्य धारा का सवाल बनाया और महसूस किया की हमें इससे निपटना होगा, नही तो चलेगा नहीं, दलित उनके पास नही आयेंगे लेकिन यह बात हैं की जो पंजाब और हरियाणा में जाति का संघर्ष था वो थोड़ा कम हुआ हैं क्यों की दलित मजदूर खेती में बहुत कम काम करता था ऐसा इसलिए हुआ की नये नये मशीन आने के कारण लेबर फोर्स की जरूरत कम पड़ने लगी और इसके कारण गाँव में आपसी समर्थन थोड़ा बढ़ा हैं, लेकिन बड़े किसान अपने शर्त पर समर्थन लेना चाहते हैं, लेकिन ऐसे चलता नही हैं। यह जरूर हैं की दलित अपने लेवल पर संगठित होकर महसूस करें कि यह हमारी लडाई भी हैं। यह आंदोलन अब सिर्फ किसानो का आंदोलन नही रहा, अब यह सामाजिक बदलाव का आंदोलन हो गया हैं, दलित भी चाह रहे हैं कि सरकार सबकी अस्मिता को पहचाने और वैल्यू दे और अगर ये आंदोलन सफल नही होता तो लगभग सारे प्रजातंत्रिक आंदोलन असफल हो जायेंगे। बीजेपी को लगता हैं की हम जाट बनाम अन्य करके इस आंदोलन को नष्ट और बदनाम करें लेकिन मुझे लगता हैं की यह कामयाब नही होगा क्योंकि दलित यह बात जान रहे हैं की अगर हमारे गाँव से खेती खत्म होती हैं तो कहीं न कहीं उनका भी नुकसान हैं और आप यह भी देखो की इस बार हाल फिलहाल पंजाब में जो चुनाव हुआ, पहली बार ऐसा हुआ की शहरी ट्रेडर्स ने बीजेपी के खिलाफ वोट दिया हैं, इसलिए दिया हैं क्यों की उनको लग रहा हैं की इस बाजारीकरण से हमारा भी नुकसान होगा।
प्रश्न– इस आंदोलन के सहयोगी लोगों को लेकर सरकार का जो रवैया हैं, उनकी आवाज़ को दबाने का जो प्रयास किया जा रहा हैं, आप इसमे क्या समझते हैं?
उत्तर– मामला वही हैं की सरकार चाहती हैं की किस तरह से आंदोलन को खत्म किया जाएँ, सरकार खुले तौर पर एक वर्ग के साथ खड़ी हैं, प्रधानमंत्री में निजी सेक्टर को समर्थन की बात संसद में कहीं, उनका नज़रिया यह हैं की अगर निजी सेक्टर, इकोनॉमी की ड्राइविंग सीट पर आ जायेगा तो इकोनॉमी आगे बढ़ेगी, लेकिन यह नजरिया कही भी कामयाब नही होगा, खास तौर पर खेती हैं या गरीबी की बात हैं, अपने आप खत्म नही होती, गरीबी को खत्म करने के लिए आगे बढ़कर काम करना होता हैं, निजी सेक्टर के लोग उनको नौकरियाँ नही देंगे, बिहार का भी जो माइग्रेशन हो रहा हैं वो किन्ही अच्छी नौकरियों में नही हो रहा तो इसके लिए जरूरी यह हैं की डिसेंट्रैलाइज तरीके से सोचा जाएँ हर जगह की अपनी जरूरतें हैं, उनको पुरा किया जाएँ। इन सबकी बजाय सरकार किसानो को खालिस्तानी बताने में लगी हैं, जाति के नाम पर बाँटने में लगी हैं, जो दुर्भाग्यपूर्ण और दुखद हैं, इस आंदोलन में किसान नेताओ को चाहिए की अपने साथ निचली पिछड़ी जातियों और दलित जातियों को जोड़ें और मुझे यह लगता हैं की इस आंदोलन की लीडरशिप बहुत समझदार हैं और वो इस आंदोलन को अच्छी तरह से आगे बढ़ाएंगे, उम्मीद हैं।