शाहजहांपुर मोर्चे की ओर…

शाहजहांपुर मोर्चे की ओर…

मुकेश कुलरिया, बीकानेर

31 दिसम्बर को दिल्ली से शाहजहांपुर मोर्चे की तरफ़ जाते हुए अहसास हुआ कि किस तरह बाक़ी मोर्चों के बरक्स यह मोर्चा राजधानी दिल्ली, और राष्ट्रीय मीडिया से मीलों दूर किसान आंदोलन की कमान थामें हुए है। आप जैसे ही आंदोलन स्थल पर पहुँचते है, वहाँ क़रीने से सड़क के एक तरफ़ एक दिवसीय अनशन पर बैठे किसान है, जिनमें युवा भी शामिल है। इनके पीछे यहाँ आए सभी किसान-युवा संगठनों के झंडे-बैनर लगे है। इनमें कई छात्र-छात्राएँ भी शामिल है।

सड़क के दूसरी ओर एक मंच लगा है, जहां पर वक्ता अपना भाषण देते है और सामने जनता बैठती है। यहाँ सिर्फ़ संयुक्त किसान मोर्चा का बैनर लगा है। यहाँ पर मुख्यतः राजस्थान, गुजरात, हरियाणा और महाराष्ट्र के किसान डेरा डाले हुए है। इस मोर्चे अधिकतर लोग ट्राली-ट्रैक्टर के बजाय तम्बूओं में रह रहे है। आसपास बाज़ार-क़स्बा ना होकर सरसों के खुले खेत और नीला-सुथरा आसमान है। मंच से तंबूओं की तरफ़ जाते हुए, सिंघु और टिकरी से अलग, काफ़ी खुला-खुला सा और तसल्ली भरा दिखता है।

जब दोपहर में जब योगेन्द्र यादव का भाषण चल रहा था, तभी कुछ युवक अचानक से 10-20 ट्रैक्टर-ट्रोली लेकर आए और बैरीकेड़ तोड़ने की कोशिश की! उन्होंने वहाँ पड़े रोड-ब्लॉक्स को गिराकर हरियाणा सीमा मे प्रवेश किया। इस दौरान पुलिस  के लाठीचार्ज में लोगों को हल्की चोटें आई और पुलिस ने जब आँसू गैस दागी तो वहाँ भगदड़ मच गई। मंच से इस दौरान लगातार शांति बनाए रखने और बैठने की अपील की जाती रही लेकिन इस एकबारगी अफ़रातफ़री ने वहाँ तनाव पैदा कर दिया।

कई लोग इसे कुछ असंतुष्ट और असंगठित युवाओं का समूह बताते रहे जबकि कई इसे आंदोलन को विचलित करने के उद्देश्य से की गई हरकत बताते रहे, जिनमें हाल ही में केंद्र सरकार से अलग हुए हनुमान बेनीवाल की पार्टी आरएलपी के कथित समर्थक युवक शामिल थे। हालाँकि इनमें से किसी की पुष्टि नहीं हो सकी लेकिन जिस नियोजित तरीक़े से पूरा आंदोलन चल रहा है, उसको नज़र में रखते हुए ये घटना कुछ सामान्य नहीं नज़र आती। पिछले हफ़्ते शाहजहांपुर से दिल्ली कूच का आह्वान ज़रूर किया गया था लेकिन उसे क्रियान्वित नहीं किया गया। हो सकता है कि कुछ युवक इसी से निराश होकर यह कदम उठाए हो।

इस मोर्चे पर बड़ी संख्या में वाम किसान संगठनों के कार्यकर्ता है, जो कि यहाँ लगे लाल झंडों-बैनरों से ज़ाहिर होता है। इस मायने भी यह मोर्चा बाक़ी मोर्चों से अलग है। हालाँकि बाक़ी मोर्चों पर भी वाम संगठनों के लोग बड़ी संख्या में है। इस मोर्चे पर जनवादी लेखक संघ द्वारा “हसन खान मेव पुस्तकालय” भी चलाया जा रहा है, जहां कई जनवादी कवियों जैसे शैलेंद्र, लाल सिंह, हरीश भादाणी, और ओमप्रकाश वाल्मीकि आदि की कविताओं के बैनर लगे है।

ग़ौरतलब है कि यहाँ हरियाणा के मिर्चपुर, भगाना और अन्य दलित उत्पीड़न के मामलों की लड़ाई लड़ने वाले कार्यकर्ता वीरेंद्र सिंह यहाँ खेती-किसानी की लड़ाई में किसानों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ रहे है। क्योंकि उनका मानना है कि ज़मीन-खेती का मुद्दा उत्पीड़न से जुड़ा है और सारी लड़ाई आख़िरकार उस मानसिकता से है जो किसी एक इंसान के हक-अधिकार को दूसरे से कमत्तर आँकता है और अलग अलग सामाजिक-राजनैतिक कारणों से कमज़ोरों के उत्पीड़न को अपना मौलिक अधिकार मानता है।

इसी कड़ी में दूसरा उदाहरण, अशोक मोची का है, जिनकी हिंदुत्व कार्यकर्ता के रूप में गुजरात नरसंहार की हिंसक तस्वीर, आम जनमानस के दिलोंदिमाग़ में आज भी ताज़ा है। अशोक धर्म के नाम पर उन्मादी राजनीति की निरर्थकता को देख-भुगत कर आज अखिल भारतीय किसान सभा के कार्यकर्ता के रूप में आए है। और इस आंदोलन को देखकर वें कहते है, “इस बार क्रांति आएगी”। अशोक ट्रांसफार्मेटिव राजनीति का बेहतरीन उदाहरण है, और आज के धर्मोन्मादी समाज में एक उम्मीद की किरण है, एक सीख है।

इन सभी कारणों से शाहजहांपुर मोर्चा बाक़ी मोर्चों से अलग है, लेकिन आंदोलन के प्रति उत्साह और एकजुटता के मामले में सभी मोर्चों के साथ एक खूबसूरत तारतम्य में भी है।

वापसी के दौरान हमने कई जगहों पर, आंदोलन स्थल से कई किलोमीटर की दूरी पर घंटो लम्बे जाम देखे जिनका आंदोलनकारियों से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कोई लेना-देना नहीं। जैसे कि एक जगह ट्रक-ट्रेलर सड़क के बीचो-बीच आड़ा लगाया हुआ था। इस आंदोलन के दौरान कई बार देखा गया है कि प्रशासन आंदोलन को बदनाम करने के लिए अपनी तरफ़ से कई इस तरह के हथकंडे अपनाती है, जिनमें से एक है आमजन में आंदोलनकारियों के प्रति नकारात्मक भावना उत्पन्न करना। लेकिन जिस जोश और संयम से ये आंदोलन प्रशासन की ओछी हरकतों को नाकाम कर, देश के हर तबके का समर्थन हासिल कर रहा है, वह वाक़ई क़ाबिलेतारीफ़ है!

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