संदीप सौरव
हमारे देश की सबसे बड़ी आबादी खेती पर आश्रित है और हमारे इतिहास में किसान आंदोलनों की लंबी विरासत रही है। देश के भीतर किसानों की हालत चाहे जितनी दयनीय हो, कृषि क्षेत्र लूटेरी ताकतों के लिए हमेशा से एक दुधारू पशु की तरह रहा है। जब–जब इन लूटेरी शक्तियों का सत्ता और शासन–व्यवस्था पर पकड़ मजबूत हुई है वे अपने मुनाफे के हिसाब से नीतियाँ बनवाते रहे हैं। किसानों ने समय–समय पर अपनी एकता और जुझारूपन से सत्ता व्यवस्था की लूटेरी और भ्रष्ट नीतियों के खिलाफ मजबूत चुनौती पेश की है।
ब्रिटिश शासन–व्यवस्था के खेत–खेती–किसान विरोधी चरित्र से भी देश के किसानों को टकराना पड़ा और आज़ाद भारत की सरकारों के खिलाफ भी आवाज़ उठानी पड़ रही है। भारतीय स्वाधीनता आंदोलन की पृष्ठभूमि में हुकूमत की आर्थिक शोषण की नीतियों की कड़ी आलोचना मौजूद रही है। राष्ट्रीय आंदोलन के ‘द ग्रांड ओल्डमैन’ दादा भाई नौरोजी ने 1870 में ही शोषण वाली आर्थिक नीतियां और गरीब जनता विशेषकर किसानों–मज़दूरों पर उनके दुष्परिणामों की ओर ध्यान आकृष्ट कराना शुरू कर दिया था। 1901 ई. में प्रकाशित आर. सी. दत्त अपनी पुस्तक ‘ Economic History of British Rule in India’ में किसान हितों की बात करते हुए कहते हैं ‘हर सच्चे भारतीय को यह आशा है कि छोटी खेती का स्थान जमीदारी प्रथा नहीं लेगी’। उनकी देशभक्ति के केंद्र में छोटे किसान रहे हैं। किसानों के हितों की चोरी करने वाला उनके अधिकारों को लूटने वाला और उन्हें कमजोर और गुलाम बना देने वाला एक तंत्र औपनिवेशिक शासन के रूप में उस दौर में भी मौजूद था। यही कारण है कि स्वाधीनता आंदोलन में किसानों का प्रश्न हमेशा महत्त्वपूर्ण बना रहा।
भारतीय नवजागरण के कई लेखकों ने उस दौर में किसानों की बेहतरी की आकांक्षा को केंद्र में रखकर अपना लेखन किया। प्रेमचंद औपनिवेशिक भारतीय उपमहाद्वीप में किसान चेतना के सबसे महत्वपूर्ण लेखक हैं। औपनिवेशिक भारत में किसानों की पीड़ा और उनके सवालों को जितनी गंभीरता, व्यापकता और आत्मीयता से उन्होंने अपनी कथाओं में उकेरा है, वह भारतीय साहित्य में अनूठा है। स्वाधीनता आंदोलन में जिस शोषण–मुक्त आजादी की बात शहीदे आजम भगत सिंह करते हैं प्रेमचंद अपनी कथाओं और वैचारिक लेखन में ‘सुराज’ के रूप में उसी सपने को सामने रखते हैं! प्रेमचंद के ‘गोदान’ उपन्यास का केंद्रीय पात्र होरी एक छोटे–से सपने लिए मंझोले किसान से क्रमशः सीमांत किसान, फिर भूमिहीन और अंत में मज़दूर बन कर सड़क पर पत्थर तोड़ते हुए दम तोड़ देता है! पूरे उपन्यास में कोई अंग्रेज किरदार मौजूद नहीं है, फिर भी उस औपनिवेशिक तंत्र की वजह से एक किसान की ट्रैजिक मृत्यु होती है। उस तंत्र को बेनकाब करना जिसके कारण किसानों की दशा बदतर होती जा रही है और इस तरफ स्वाधीनता आंदोलन के मुख्यधारा का ध्यान आकृष्ट करवाना इस उपन्यास का एक बड़ा मकसद है। यह तंत्र धनलोलुप पूंजीवादी तंत्र था जिसमें किसानों के श्रम की लूट को नीतिगत जामा पहनाया जा रहा था। प्रेमचंद का एक चर्चित लेख है– ‘ अंधा पूंजीवाद’। 1923 ई. में प्रकाशित इस लेख में उन्होंने सरकार द्वारा पूंजीपति–परस्त नीतियों और कानूनों की तीखी आलोचना की है। लेख का शुरुआत इस तरह से होता है–
“ज़िधर देखिये उधर पूंजीपतियों की घुड़दौड़ मची हुई है | किसानो की खेती उजड़ जाये, उनकी बला से। कहावत के उस मूर्ख की भांति, जो उसी डाल की जड़ काट रहा था, जिस पर वह बैठा था, यह समुदाय भी उसी किसान की गर्दन काट रहा है ज़िसका पसीना उसकी सेवा में पानी की तरह बह रहा है।”
प्रेमचंद खुलकर खेती–व्यवस्था में पूंजीपतियों की लूटेरी भूमिका का विरोध करते हैं। वो इस बात को रेखांकित करते हैं कि चंद मुनाफाखोरों के हित को साधने के लिए खेती की तबाही वाली नीति राष्ट्र की तबाही है। आज जब पूरे देश के किसान कंपनी–परस्त तीनों कृषि कानूनों के खिलाफ सड़क पर हैं और अडानी–अंबानी की गुलामी से साफ–साफ इंकार कर चुके हैं, तब हमें याद रखना चाहिए कि खेती–किसानी पर पूंजीपति वर्ग की गिद्ध–दृष्टि औपनिवेशिक भारत में भी मौजूद थी। भारतीय नवजागरण के ध्वजवाहकों और स्वाधीनता सेनानियों ने अपने दौर में भी इसका मुखर विरोध किया था। आज दिल्ली के विभीन्न बॉर्डरों पर चल रहे किसानों के आंदोलन को हमें उसी संदर्भ में रेखांकित करना चाहिए।
आज मोदी सरकार जबरन इन कानूनों को किसान–हितैषी बता रही है। देशहित के नाम पर कंपनियों का साम्राज्य स्थापित करने की चतुराई के संबंध में प्रेमचंद अपने उसी लेख में कहते हैं– “यह आशा करना कि पूंजीपति किसानों की हीन दशा से लाभ उठाना छोड़ देंगे, कुत्ते से चमड़े की रखवाली करने की आशा करना है। इस खूँखार जानवर से रक्षा करने के लिए हमें स्वयं सशस्त्र होना पड़ेगा” मुनाफाखोर अगर खेती में उतरेंगे तो अपने फायदे के लिए किसानों के भविष्य को नोच खायेंगे। आज पूरा देश गवाह है कि सरकारों ने जिस क्षेत्र को पूंजीपतियों के हवाले किया है वो आम जनता की पहुँच से दूर होते गए हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार में सरकार की कॉरपोरेट–परस्त नीतियों ने इन क्षेत्रों से मेहनतकश आवाम को बेदख़ल कर दिया। अब इनकी नज़र खेती पर लगी हुई है। ये उसे भी सफाचट करना चाहते हैं।
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज दुनिया के सबसे बड़े जनतंत्र को चलाने वाली सरकार ही अपने किसानों की दुश्मन बनी बैठी है। कृषि–कानून किसानों पर अब तक का सबसे बड़ा हमला है। यह एक झटके में समूची खेती और किसानी को कॉरपोरेट घरानों का ग़ुलाम बनाने का फरमान है। इसलिये इसके खिलाफ चल रहे आंदोलन भी आज तक के किसान आंदोलनों में सबसे बड़ा आंदोलन है।
कृषि का कॉरपोरेटीकरण वो साज़िश है जहाँ कृषि केवल व्यावसायिक विचार से संचालित होगी। भूख से ‘भात–भात’ कहते हुए मरने वाली झारखंड की संतोषी से उनका कोई सरोकार नहीं होगा; और न ही होरी जैसे किसानों की ट्रैजिक मृत्यु से! इस साज़िश का हर स्तर पर मुकाबला करना होगा। कृषि–कानूनों के खिलाफ चल रहा यह आंदोलन इस देश को बचाने का संघर्ष है, आने वाली नस्लों को ग़ुलाम होने से रोकने की ज़िद है। हर स्तर पर इस संघर्ष का साथ दें!