1988 में बोट क्लब, दिल्ली तक में किसान आन्दोलन की धमक के बाद वर्तमान का आन्दोलन ऐसा दूसरा मौका है जब किसानी के मुद्दे पर राजधानी की सीमाओं पर किसानों का चक्काजाम हुआ है। इस आन्दोलन में अग्रणी भूमिका निभाने वाले चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत ने आन्दोलन से एक वर्ष पहले 1987 में भारतीय किसान यूनियन की स्थापना की।
13 अगस्त 1978 को बलबीर सिंह और हरनाम सिंह ने लेबर यूनियन एक्ट के तहत संगठन का पंजीकरण करवाया। यह पूरी तरह से स्वतंत्र और गैर राजनैतिक संगठन है।
इस दौरान संगठन का दिल्ली में चौधरी चरण सिंह के सम्मान में किसान घाट बनाने को लेकर चले आन्दोलन में महत्वपूर्ण योगदान रहा। इस दौर के दो मुख्य नारे थे – अल्ला हू अकबर, हर–हर महादेव; और जय जवान–जय किसान।इस दशक में हुए आन्दोलन में दो किसानों, जयपाल और अकबर अली की शहादत भी हुई। इन आंदोलनों में एक मुख्य मुद्दा किसान के सम्मान का भी था क्योंकि किसान किसी भी सरकारी हाकिम से काफी डरे–सहमे रहते थे। धीरे–धीरे किसानों ने अपने संगठित होने के चलते इस दर को ख़त्म किया।
वर्तमान में नरेश सिंह टिकैत इसके राष्ट्रीय अध्यक्ष है तथा इसके सदस्य महाराष्ट्र, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश में हैं। जबकि दक्षिण भारत में इसके साथी संगठन कर्णाटक राज्य रायत संघ, केरल में कोकोनट फार्मर यूनियन,तमिलनाडु में तमिल मनिला संघ है तथा ये सभी इंडियन कोरडीनेसन कमेटी ऑफ़ फार्मर मूवमेंट के अंतर्गत आते है जिसके चेयपर्सन अजमेर सिंह लाखेवल है तथा जनरल सेक्रेटरी युद्धवीर सिंह है। वर्तमान में इसके 15 लाख के आसपास सदस्य है।
वर्तमान में नरेश सिंह टिकैत इसके राष्ट्रीय अध्यक्ष है तथा इसके सदस्य महाराष्ट्र, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश में हैं. जबकि दक्षिण भारत में इसके साथी संगठन कर्णाटक राज्य रायत संघ, केरल में कोकोनट फार्मर यूनियन,तमिलनाडु में तमिल मनिला संघ है तथा ये सभी इंडियन कोरडीनेसन कमेटी ऑफ़ फार्मर मूवमेंट के अंतर्गत आते है जिसके चेयपर्सन अजमेर सिंह लाखेवल है तथा जनरल सेक्रेटरी युद्धवीर सिंह है।
वर्तमान में इसके 15 लाख के आसपास सदस्य है। भाकियू के मुख्य एजेंडा में पहला, बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा ज़मीन की लूट के खिलाफ लड़ना है। भाकियू का मानना है की सिंचित ज़मीन खेती के लिए और असिंचित ज़मीन उद्योगों के लिए होनी चाहिए और भूमि अधिग्रहण पर मुआवजा उचित और समय पर होना चाहिए। दूसरा, देशी बीजों को बचाना और संकर और जीएम बीजों को रोकना है. क्योकि मोनसेंटों जैसी कम्पनियां यहाँ के पारंपरिक ज्ञान और बीजों को तकनीकी संवर्धन के नाम पर चुराकर कृषि क्षेत्र पर एकछत्र कब्ज़ा जमा लेना चाहती है जो इस देश की मिटटी, किसानी और संस्कृति के लिए खतरनाक है।
कृषि संकट को पूरी तरह दुरुस्त करने के लिए मुख्यत दो मुद्दों पर काम करना ज़रूरी है, पहला, स्थानीय विविधता को ध्यान में रखते हुए कृषि नीति बनाना क्योंकि हमारे देश में हर 100 किलोमीटर पर पानी–मिटटी बदलती है। बिना मौसम, मिटटी और संसाधनों को ध्यान में रखे बनाई गई कोई भी नीति कारगर नहीं हो सकती।कृषि नीति की नीयत और परिभाषा दोनों उत्पादन केन्द्रित है इसे किसान केन्द्रित करना होगा। सस्ते आयातित अनाज, दलहन, तिलहन के चलते हमारे किसान कर्जे में दब गए है और आत्महत्या कर रहे है।पश्चिमी देशों में किसानों को बेहतर सुविधाएँ और सब्सिडी मिलती है जिसके चलते वो अपनी आजीविका और आय को बिना संकट में डाले खेती कर पा रहे है, जबकि हमारे देश में किसान क़र्ज़ के जाल में जकड़ा हुआ है। इससे निजात पाने के लिए सरकार को सब्सिडी या कीमत गारंटी करने की नीति अपनानी होगी।
हालांकि अभी के स्वरुप में APMC में व्यापारी को सीधी खरीद की छूट नहीं है लेकिन फिर भी मंदी बेहतर है। मंडी में एक सामूहिकता है जिसमें किसी एक छोटे किसान की समस्या को उठाने की संभावना है। मोल–भाव की संभावना है। अभी छोटे व्यापारियों के सामने जब छोटे किसान इतनी समस्या का सामना करते है तो सोचिये बहुराष्ट्रीय कम्पनी के सामने किसी भी किसान की क्या बिसात रहेगी?