नकुल सिंह साहनी
पिछले कुछ दिनों लोग आशंका व्यक्त कर रहे हैं और राकेश टिकैत को लेकर जगे उत्साह पर भी गुस्सा जता रहे हैं। सबसे ज़्यादा गुस्सा बीकेयू की 2013 में मुज़फ्फरनगर और शामली ज़िलों में हुई सांप्रदायिक हिंसा में गैर जिम्मेदाराना भूमिका से है। इस हिंसा में हुए पागलपन को पश्चिम यूपी में समाए साढ़े सात साल से अधिक हो गए हैं। हमने बीकेयू को विभाजित होते देखा और इस प्रकार कई नए दल उभरे। ध्यान देने योग्य विभाजन बीकेयू के सबसे बड़े मुस्लिम नेता गुलाम मोहम्मद जौला का टूटना था, जो कि अक्सर स्वर्गीय बाबा टिकैत के दाहिने हाथ माने जाते थे।
दिलचस्प बात यह है कि 2014 में जब अजीत सिंह और जयंत चौधरी चुनाव हार गए थे, तब क्षेत्र के कई पुराने जाट खिसिया गए। उनमें से कई लोगों ने दुख मनाया कि ‘हमने चौधरी साहब को कैसे हरा दिया। 2013 की हिंसा में लिप्त होने के लिए कई जाट (विशेष रूप से पुरानी पीढ़ी के) हमेशा अपनी युवा पीढ़ी से नाराज़ थे। यह इस बात पर ज़ोर देना नहीं है कि समुदाय के बुज़ुर्ग हिंसा में शामिल नहीं थे। लेकिन जिन्होंने बीकेयू और आरएलडी के दिन देखे थे, वे इस पागलपन की व्यर्थता को समझते थे। वे समझते थे कि क्षेत्र के मुसलमान उनके अस्तित्व का एक अविभाज्य हिस्सा हैं।
दंगों के लगभग पाँच साल बाद, अंत में संयुक्त हिंदू– मुस्लिम किसान पंचायतें हुईं, जिनका नेतृत्व ठाकुर पूरन सिंह, गुलाम मोहम्मद जौला आदि ने किया। अंत में, 2019 के चुनावों से ठीक पहले राकेश टिकैत के नेतृत्व में एक विशाल रैली हुई, जो 10 मांगों के साथ दिल्ली आई। उस रैली में हिंदू और मुस्लिम दोनों किसानों ने भाग लिया। कई अन्य यूनियनों ने आंदोलन को समर्थन दिया। दिल्ली फिर से घेरे में थी। हालांकि, सभी मांगें पूरी नहीं हुई थीं, रैली को बंद कर दिया गया। कई नाराज़ भी हुए। कई लोगों को लगा कि उन्हें बीजेपी ने ख़रीद लिया है। 2019 के बाद मुज़फ्फरनगर और शामली में बीकेयू के नेतृत्व में कई प्रदर्शन हुए। इन विरोध प्रदर्शनों में कई मुस्लिम किसानों की उपस्थिति दिखना काफ़ी दिलचस्प बात थी। कई लोग बीकेयू के पोस्ट–होल्डर भी थे। यह स्पष्ट था कि राकेश टिकैत बीकेयू को पुनर्जीवित करने की कोशिश कर रहे थे। नरेश टिकैत ज़ाहिर तौर पर दरकिनार हो गए। उन्होंने 2013 की हिंसा के बाद भी भड़काऊ बयान देना जारी रखा। पिछले 2-3 वर्षों में, ऐसा नज़र आता है कि राकेश ने संघ की बागडोर अपने हाथ में ले ली है और नरेश को दरकिनार कर दिया है क्योंकि सांप्रदायिक राजनीति उनके साथ जुड़ने लगी है। क्या यह दो भाईयों के बीच वैचारिक टकराव है या एक सामरिक चाल है, केवल वे ही जानते हैं।
जब कृषि विरोधी बिल के प्रदर्शनकारी दिल्ली की सीमाओं पर पहुँच गए, तो सबकी निगाहें ग़ाज़ीपुर सीमा पर भी थीं। सच कहा जाए, जबकि कई किसान आंदोलन में शामिल होने के लिए बहुत उत्सुक थे, राकेश टिकैत के साथ बड़े पैमाने पर विश्वास की कमी थी। कई लोगों को संदेह था कि वह एक भाजपा एजेंट हैं, जो किसी भी मिनट पलट सकते हैं। लेकिन अब, ग़ाज़ीपुर सीमा पर 27 जनवरी रात की घटनाओं ने इस धारणा को बदल दिया है। राकेश टिकैत ने एक वीडियो संदेश में बहुत भावुक अपील की, जहाँ वे रो रहे थे, जिससे पश्चिम यूपी के किसानों में हड़कंप मच गया। कई बातों में से एक बात उन्होंने यह कही कि भाजपा का समर्थन करने का निर्णय वे हमेशा पछताएंगे। उसी रात हज़ारों की संख्या में लोग मुज़फ्फरनगर ज़िले के सिसौली गाँव में टिकैत के घर के बाहर जमा हो गए। दो दिन बाद, 29 जनवरी, 2021 को सिसौली गाँव में एक ऐतिहासिक महापंचायत हुई। उस पंचायत में कई हजारों लोग शामिल हुए। पंचायत के प्रमुख वक्ताओं में गुलाम मोहम्मद जौला भी थे। उन्होंने सीधी बात की। उन्होंने कहा ‘आपने अब तक जो दो सबसे बड़ी ग़लतियाँ की हैं, एक, आपने अजीत सिंह को हराया और दो, आपने मुसलमानों को मार डाला’। उन्हें चुप कराने की कोई कोशिश नहीं की गई। सब एकदम शांत थे। अन्य वक्ताओं ने कहा कि ‘हम कभी भी भाजपा के बहाव में नहीं आयेंगे।’ एक बहुत ही दुर्लभ निर्णय इस ऐतिहासिक पंचायत में लिया गया – भाजपा का बहिष्कार करना। महापंचायतों के लिए सार्वजनिक रूप से राजनीतिक पार्टी का बहिष्कार करना कोई आम बात नहीं है।
आज भी ग़ाज़ीपुर सीमा पर, जिस प्रकार बाग़पत, मुज़फ्फरनगर, शामली, मेरठ आदि ज़िलों से किसानों के समर्थन का आधार बढ़ता जा रहा है। ‘2013 की एक बड़ी गलती थी’। ‘बीजेपी ने हमारे गुस्से का दुरुपयोग किया, और हम उनके बहाव में आ गए।’ सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि ‘2013 में मुज़फ्फरनगर दंगों के कारण ही पश्चिम यूपी में बीजेपी का विकास हुआ था, अब उनका पतन भी उसी मुज़फ्फरनगर में शुरू होगा।’ बीकेयू के सबसे प्रमुख नारे, ‘हर हर महादेव, अल्लाहु अकबर’, जो 1988 में बोट क्लब के माध्यम से गूंजते थे, जल्द ही वापस आ सकते हैं। क्या यह आसानी से अतीत को मिटाता है? क्या यह 2013 के घावों को ठीक करता है? 60,000 लोग, मूल रूप से मुस्लिम, जो विस्थापित हो गए थे और कभी भी अपने मूल गाँवों में वापस नहीं जाएंगे। मुझे यह पता है कि 2013 की हिंसा के कारण पश्चिम यूपी को भारी नुकसान उठाना पड़ा है। इस हिंसा के प्रभाव गंभीर रहे हैं। बहुतों को भुगतना जारी है। यदि 2013 के दंगे न होते, तो सीएम के रूप में योगी संभव नहीं थे और शायद पीएम के रूप में मोदी भी। मुझे यह पता है हाल ही में हुई घटनाएँ पश्चिम यूपी के अशांत हिस्सों में कुछ शांति लाने का एक लंबा रास्ता तय करेंगी। यहाँ तक कि हिंदू और मुस्लिमों के बीच के व्यक्तिगत संबंध भी बेहतर होते मिलेंगे। इसका यह मतलब नहीं है कि यह सब कुछ बदल देगा। लेकिन हर ऐसा छोटा कदम बदलाव के लिए मायने रखता है।
हालाँकि राकेश टिकैत के बारे में अभी भी कई लोग आशंका जताते हैं, और शायद ठीक भी है, मैं फ़िर भी उनसे इस स्थिति में धैर्य रखने की अपील करता हूँ। यह एक कठिन समय है, और इस तरह के मंथन महत्वपूर्ण हैं। बीजेपी ने भारत को जो नुकसान पहुँचाया है, उसमें संशोधन करने में बहुत समय लगेगा। कभी–कभी विरोधाभासों से भी भरा हुआ। पश्चिम यूपी में अभी भी कई दरारें मौजूद हैं। पंजाब के विपरीत जहाँ क्रांतिकारी किसान यूनियन कई दशकों से सक्रिय हैं, हरियाणा और यहाँ तक कि पश्चिम यूपी (बीकेयू सहित) किसानों को जुटाने के लिए खापों पर निर्भर हैं। सामंती नज़रिए को टूटने में समय लगेगा। लेकिन 29 जनवरी की महापंचायत उस समाज के लोकतंत्रीकरण की दिशा में एक निश्चित, छोटा लेकिन महत्वपूर्ण कदम था।