उस भोर के इंतेज़ार में

उस भोर के इंतेज़ार में

मुकेश कुलरिया

किसान आंदोलन को शुरू हुए काफ़ी वक्त हो गया है, बहुत से सवाल जस से तस बने हुए है। कई नए सवाल उनमें जुड़ गए है लेकिन एक सवाल जो अब हाशिए पर चला गया है, वो है, “ये आंदोलन कब तक चलेगा?” आंदोलन शब्द के मायने में एक जोश, जुनून और आक्रामकता का उरूज झलकता है जिसके कारण शायद हमारी पीढ़ी के आंदोलनों के अनुभव की कमी है। आंदोलन किसी एक मुद्दे, समय और स्थान पर उभरता एक आक्रामकता के साथ ज़रूर है लेकिन उसकी आगे की यात्रा बेहद अनूठी होती है, विशेषकर इस आंदोलन के संदर्भ में। कड़कड़ाती सर्दी और दो-चार बारिश झेलने के बाद किसान बेहद तन्मयता से गर्मी की तैयारियाँ कर रहे है, जैसे घरों में मौसम बदलने के साथ खाने-पहनने में बदलाव आते है। सड़कों पर बने आशियानें अब घर बन गए है और हर आशियानें का अपना एक व्यक्तित्व है। अब आंदोलन मापने के लिए दिन गिनना बेमानी लगता है, बस समय के मायने है तो वो दिन जिस दिन आंदोलन की जीत होगी, वो चाहे कल आए या अगले बरस। 

यहाँ आंदोलन में आए इस ठहराव का अर्थ समझने के लिए मोर्चों पर थोड़ी क़दमताल करनी होगी। अगर ट्रैक्टर-ट्रोल्लियों के जत्थे और जोशीले किसान देखने को अभ्यस्त आँखें इस शांत से दिख रहे मोर्चों को देखकर किसी निराशा से भर रही है तो ज़रा ठहरकर सोचिए? किसी जनतांत्रिक रवैए वाली सरकार के सामने इतना बड़ा और लम्बा आंदोलन चलाने की ज़रूरत नहीं पड़ती लेकिन जिस अलोकतांत्रिक, जन-विरोधी सरकार से हम जूझ रहे है, आंदोलन के सामने कोई रास्ता नहीं है। अमूमन आंदोलन दो तरीक़े से ख़त्म होते है, माँगे मान लेने पर या आंदोलन को धन-बल और प्रॉपगैंडा से बर्बाद कर दिया जाए। इस आंदोलन को तोड़ने की बहुत कोशिशें की गई लेकिन आंदोलन उन सबपर भारी पड़ा। गोदी मीडिया ने आंदोलन को बदनाम करने में कोई कसर नहीं छोड़ी! लेकिन इन सबके बावजूद किसानों के दृढ़विश्वास और संयुक्त किसान मोर्चा के सुलझे हुए नेतृत्व के चलते आंदोलन ना सिर्फ़ खड़ा है बल्कि मोर्चों से परे भी देशभर में फैल रहा है।

अगर हम दिल्ली सीमा पर लगे मोर्चों के साथ देशभर में हो रही महापंचायतों को जोड़कर देखे तो लगेगा कि आंदोलन ज़बरदस्त जनसमर्थन प्राप्त कर रहा है। चाहे कितना भी ऐतिहासिक और विशाल हो ये आंदोलन, इतने वक्त के बाद ये “न्यू नॉर्मल” बन गया है। और इस “न्यू नॉर्मल” को तोड़ने में लिए इससे बड़ी लकीर महापंचायतों के माध्यम से खींची जा रही है। मध्यप्रदेश, राजस्थान, उत्तराखंड, कर्नाटक में हो रही महापंचायतें इसकी बानगी भर है। जैसे चीनी विद्वान लाओ त्से ने कहा है, कि घड़ा भले ही मिट्टी से बनता है लेकिन उसकी उपयोगिता घड़े के ख़ाली स्थान में होती है जहां कुछ नहीं है हवा के सिवा। आंदोलन खड़ा करना उतना मुश्किल नहीं है जितना उसे चलना। रोष और ग़ुस्से को जताना एक बात है और उसे राजनैतिक चेतना से संवारकर आंदोलन के माध्यम से सामाजिक बदलाव लाना बेहद ज़रूरी है वरना हर एक असफल आंदोलन, हमें फ़ासीवाद के एक कदम क़रीब लेकर जाता है। अन्ना आंदोलन इसका उदाहरण है। इसलिए आंदोलन की तथाकथित रोज़मर्रा की चाल को देखकर आशंकित होने के बजाय खुश होने की बात है। पहले दिन से आए किसान इस आंदोलन में रम गए है, उनका “लड़ेंगे-जीतेंगे” और “जीतेंगे या मरेंगे” का नारा उन्होंने अपने रोज़ के जीवन में उतार लिया है। और इसी वजह से एक खूबसूरत सा ठहराव आया है जिसमें राजनैतिक प्रतिकूलताओं के बरक्स आंदोलन की अहमियत आँखे उस भोर का इंतेज़ार कर रही है, जिसका सपना आंदोलनकारियों ने पहले दिन से देखा है। अब वो भोर जब होगी, तब होगी। लेकिन उस भोर से पहले की लम्बी रात आंदोलनकारी पूरी शिद्दत के साथ जी रहे है, जिसमें खाना-पीना-रहना उतना ही ज़रूरी है जितना नारे-मोर्चे-मंच है। आंदोलन में लिंग-जाति-वर्ग के सवालों पर थोड़ी बहस शुरू हुई है, जिसमें कुछ मसलों पर कम से कम एक तात्कालिक ही सही पर बदलाव आया है। रोज़ा लग्जमबर्ग ने कहा है कि ज़ंजीरों का अहसास होने के लिए इंसान को चलना पड़ता है। बैठे-बैठे ज़ंजीरें महसूस नहीं होती। शायद ये पहला मौक़ा होगा कई आदमियों, ऊँची जाति के लोगों और अमीरों में जब वे अपने व्यवहार को ठिठककर परखे और कम से कम आँख की शर्म के चलते ही, कुछ बदलाव करे। बदलाव के लिए गलती का यह अहसास होना पहला कदम है। यही छोटे-छोटे नारी मुक्ति, जातिविहीन और वर्गरहित समाज के आंदोलन इस विशाल आंदोलन की छाँव में पनप रहे है। 

आंदोलन के बारे में प्रेमचंद ने लिखा है,“लोग कहते हैं आंदोलन, प्रदर्शन और जुलूस निकालने से क्‍या होता है?…इससे यह सिद्ध होता है कि हम जीवित हैं, अडिग हैं और मैदान से हटे नहीं हैं।” आंदोलनजीवी होने के मायने ही लड़ते रहना है, बेहतरी के लिए, हर एक अधिकार को सचमुच का पाने के लिए। अपनी आवाज़ को जुर्म के ख़िलाफ़ बुलंद करने का। और अपने ज़िंदा होने का। जिस सपने के लिए भगत सिंह लड़े और शहादत दी उस सपने का भारत बनने में ऐसे सैकड़ों आंदोलन की दरकार है। इस मायने में यह आंदोलन एक पीढ़ी को तैयार कर रहा है, जो सपने देखने के साथ-साथ उसे साकार करने में अपनी भूमिका निभाना सीख रहा है

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