हम पहाड़ के किसान भी किसान आंदोलन के साथ हैं

हम पहाड़ के किसान भी किसान आंदोलन के साथ हैं

मेरा नाम विजय लक्ष्मी है और मैं हमेशा से किसान आंदोलन का हिस्सा रही हूँ। अब मुझे गाज़ीपुर बॉर्डर पर कई महीने हो गए हैं। जब गाज़ीपुर पर लोग बैठे, उसके तकरीबन एक महीने के बाद मैंने आना शुरू किया। वैसे मैं सन 1983 में माले पार्टी के साथ जुड़ गई थी। जब भी किसान संगठन और पार्टी वाले अलग अलग मुद्दों को लेकर लोगों के बीच जाते थे, मैं साथ जाती। इस आंदोलन के दौरान मैं ज्यादा गाज़ीपुर बॉर्डर पर ही रही हूँ। बीच बीच में घर आना जाना भी लगा रहता है। मेरी उम्र 57 साल है। मैं अपने गांव, ग्राम पंचायत सुरमोली से दो बार सरपंच का चुनाव लड़ी थी। एक वार 11 वोटों से जीती, दूसरी बार केवल एक वोट से रह गई। मैं दस साल पहले जीती थी और पांच साल सरपंच रही, पर अब नहीं हूँ।

इन खेती कानूनों की बात करें तो इनका ज्यादा नुकसान गरीब मजदूर पर पड़ेगा। जब किसान अनाज नहीं उगायेगा तो मजदूर कहाँ से खायेगा। बड़े-बड़े पूँजीपति ही सारी फ़सल खरीद लेंगे, उसके बाद उसको जमा कर लेंगे। जरा सोचिए अभी 50 रुपए आटा मिल रहा है, जब सब कुछ इनके पास चला जाएगा तो आटे का रेट और ज्यादा हो जाएगा। यह 100 रुपये से कम तो हरगिज़ नहीं देंगे। जो रेहड़ी लगाते, शहर में मज़दूरी करते हैं यां खेतों में मज़दूरी करते हैं वो कैसे अपने बच्चों का गुज़ारा करेंगे। इस लिए हम किसानों का साथ दे रहे हैं और किसानों के साथ जुड़े हैं। जो भी किसान यहाँ पर बैठे हैं वो गरीब मज़दूर के लिए बैठे हैं। किसान जल्दी नहीं मरेगा, पहले गरीब मज़दूर ही मरेगा। किसान अपने लिए उगा लेंगे, खा लेंगे और अपना गुजारा कर लेंगे।

मैं भी किसान हूँ, उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्र में रहती हूँ। हम पहाड़ के किसानों को छोटी जोत वाले भी कहा जाता है। खेती से ही हमारा गुज़ारा चलता है। हमारे पूर्वजों ने भी अपना गुज़ारा इसी से ही किया है। हमारे यहाँ छोटे छोटे खेत होते हैं, वो भी एक जगह नहीं। कोई कहाँ पर होता है, कोई कहाँ पर। पहाड़ों में दौड़ाई ज्यादा होती है, इधर-उधर जाना पड़ता है। दूर दूर खेत होने से ज्यादा फर्क महिलाओं को पड़ता है, उनका काम बहुत बढ़ जाता है। छोटी-छोटी जोतें होने के चक्कर में किसानी का तरीका भी पंजाब, हरियाणा यां यू.पी. से अलग है। हम खेती अपने मन मुताबिक नहीं कर सकते। पर सब किसानों की जमीन लगभग एक बराबर ही होती है।

पहाड़ों के किसानों का एक मुद्दा यह भी है कि जंगली जानवरों से छुटकारा मिले, जैसे सूअर और बन्दर। पहाड़ों में ज्यादा हिस्सा जंगली है, कुछ उगाने को नहीं है और जो कुछ उगाते भी हैं उसको जंगली जानवर खा जाते हैं। अभी पहाड़ ज्यादातर खाद्य सुरक्षा पर निर्भर है। जो मोदी सरकार खेती कानून लाना चाहती है इसमें ये खाद्य सुरक्षा भी बंद करने वाले हैं। अगर ये खाद्य सुरक्षा बंद कर देंगे तो पहाड़ खत्म हो जायेंगे। हमारे में इतनी छमता नहीं है कि हम महंगा-महंगा खरीद के खा पाए। इस लिए हम पहाड़ के किसान भी किसान आंदोलन के साथ हैं। मेरा गांव सब्जी उघाने में बहुत अच्छा है क्योंकि हमारे पास पानी है जिसके कारण सब्जियाँ अच्छी होती हैं। हम लसन और प्याज़ भी पैदा करते थे जो जानवर खा जाते हैं। हम चाहते हैं कि खेत एक साथ हो जाए, हम अपनी खेती अच्छे से कर पाएंगे। हम खेत की चार दीवारी भी कर लेंगे और इसकी रखवाली भी कर लेंगे। बिखरी हुई खेती की रखवाली नहीं हो पाती है। जब एक साथ हो जाएगी तो हम चार दीवारी करके अपना गुज़ारा कर सकते हैं।

हमारे यहाँ ज्यादा दो ही पार्टियाँ जीतती हैं कांग्रेस और भाजपा, तीसरा एक छेत्रीय पार्टी है। थोड़ा थोड़ा काम समाजवादी पार्टी का भी है, पर पहाड़ों में नहीं है। पहाड़ो में तो दो ही पार्टी है – कांग्रेस और भाजपा। उन्हीं के खिलाफ हमें लड़ना पड़ता है। सभी सरपंचो पर उनका ही जोर और कब्ज़ा रहता है। हम मजदूरों के संघर्ष भी लड़ते रहे हैं। पहाड़ों पर पत्थर तोड़ने का काम होता है। वहां महिलाओं को कम मजदूरी मिलती थी और पुरषों को ज्यादा। इसके खिलाफ हमने संघर्ष किया है। काम तो महिला और पुरष बराबर करते हैं लेकिन महिलाओं को कम पैसा दिया जाता था। हम इसके खिलाफ लड़े। यह बात दस साल पहले की है। हमें उस आंदोलन में सफलता मिली। जिनकी मज़दूरी रुकी हुई थी उनको पूरी मज़दूरी मिली। उस आंदोलन के बाद से हमारे यहाँ अब भी महिलाओं को पुरषों के बराबर मजदूरी मिलती है। जिनको नहीं भी मिलती तो सारे लोग शिकायत करने के लिए आ जाते हैं। कहते हैं ठेकेदार को बोलो हमें पूरी मजदूरी दे। सब साथ मिल के जा के बोलते हैं तो वो दे देते हैं।

हमारे यहाँ खेती लायक ज़मीन कम है, न और कोई रोजगार है तो सभी नौजवान शहर को पलायन कर रहे हैं। गांव खाली हो गए हैं। गुज़ारा तो हमारा यहीं है क्योंकि यही हमारा घर है। तो जो हम उगाएंगे वही खाएंगे। हम पहाड़ों पर ही निर्भर हैं। इन कानूनों के कारन आम किसान कुछ नहीं ख़रीद पाएगा। रोटी के भी मोहताज़ हो जायेंगे। सरकारी नौकरी भी खत्म हो रही है। ऐसी स्थिति में पहाड़ खत्म होने की कगार पे है और अगर पहाड़ खत्म हो गए सब खत्म हो जाएगा। जो लोग नहीं समझ रहे उनको इन कानूनों के बारे में हमें समझाना चाहिए।

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