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किसान आंदोलन की रातें

संदीप मील, शाहजहांपुर बॉर्डर

अक्सर हम आंदोलनों के दिनों के बारे में तो तमाम स्त्रोतों से देखतेसुनते रहे हैं। लेकिन आंदोलनों की रातों की बारे में शायद कम ही जानते हैं। किसान आंदोलन की रातें वैसी ही होती हैं जैसी आमतौर पर किसान की हर रात होती है। किसान आंदोलन के मेरे अनुभव शाहजहांपुरखेड़ा बॉर्डर के हैं जो शायद भारत में चल रहे तीन कृषि विरोधी कानूनों के खिलाफ सभी आंदोलनों से जुड़ते हैं। 

हम सड़क पर बैठे हैं वह नेशनल हाईवे 8 है जिस पर मैंने अपने छात्र जीवन में कई यात्राएँ की हैं। आज रात को जब इस सड़क पर सोते हैं तो ऐसा अहसास होता है कि हमारी छाती पर से ट्रक गुजर रहे हैं, हमारी हड्डियां सड़क से चिपक रही हैं। खून बहकर ठंडी सर्द हवाओं में कोलतार पर जम रहा है। लेकिन खून का कोई कतरा फिर रगों में बहने लगता है और उसी कतरे से हरारत होती है, हम ज़िंदा हो उठते हैं। हम रोज़ मरते हैं और रोज़ ज़िंदा होते हैं। ये ट्रक जो रातों को हमारी छातियों से गुजरते हैं उन पर इन किसान विरोधी कानूनों की इबारतें लिखी होती हैं। ऐसे दुःस्वप्न डराने के बाद भी जो साहस आता है वह अपने खेत को याद करने से आता है। किसान हर साल पीढ़ियों से ऐसी सर्द भरी रातों में फसल को पानी देता है, उसके पैर पानी में इतने ठंडे हो जाते हैं कि उन्हें गर्म करने के लिए वह एक बार तो पैर आग में भी डाल देते हैं तो गर्मी का अहसास नहीं होता है। इसके बावजूद भी किसान को फसल का लाभदायक मूल्य नहीं मिल पाता है। उसके बच्चे बेहतर पढ़ाई से मरहूम रहते हैं तो परिवार इलाज़ के अभावों में बीमारियों से जूझता रहता है। 

खेती का यही संघर्ष यहाँ सड़क पर हमें ताक़त देता है। यह उस जमीन को बचाने का संघर्ष है जिसने सदियों से भारत का पेट भरा है। 

बुज़ुर्ग और महिला साथी हर रात खाने के बाद कोई किस्सा सुनाता है तो कोई गीत सुनाता है। साथी गुरलाभ सिंह जब हीर का किसान आंदोलन के समर्थन में बनाया नया वर्जन सुनाते हैं तो आग के पास बैठे आंदोलनकारियों का चेहरा जोश से खिल उठता है। गिटार पर यहाँ पाश, फ़ैज़, बल्ली सिंह चीमा, अदम गोंडवी और शैलेन्द्र जैसे जन पक्षधर रचनाकारों की कविताएं गाई जाती हैं। वहीं पर बुल्लेशाह के मोहब्बत के गीत भी गुनगुनाए जाते हैं।गीत पंजाबी, गुजराती, राजस्थानी, हरयाणवी, भोजपुरी या मेवाती जैसी भारत की किसी भी भाषा में गाया जाता हो, सब उन बोलों के दर्द समझ लेते हैं। दर्द की कोई ज़ुबाँ नहीं होती, दर्द की कोई सरहद नहीं होती, वह तो दिलों से ऐसे जुड़ता है जैसे उनका सदियों का नाता हो।  शाम को जब चूल्हों पर रोटियाँ पकती हैं तो वे मर्द भी रोटियाँ बनाते हैं जिन्होंने घरों में रोटियाँ नहीं बनाई, आंदोलन पितृसत्ता को भी तोड़ता है।लोगों की चेतना में बराबरी के मूल्य प्रवेश करते हैं। पुरुष हर जगह खुशी से महिलाओं के नेतृत्व को स्वीकार कर रहा है।

शाम को देशभक्ति और किसानों से जुड़े गाने ट्रेक्टरों पर बजते रहते हैं। रात को मोर्चे पर कई जगह आग जलाकर लोग पहरा देते हैं। पहरा देने वाले युवाओं की ज़िम्मेदारी सिर्फ असामाजिक तत्वों से आंदोलन को बचाना है बल्कि वे हर आंदोलनकारी को देखते हैं कि उन्होंने खाना खा लिया हो, उनके पास टैंट, रजाईगद्दे और पीने का पानी हो। देर रात तक सबको दूध पिलाया जाता है और जिन लोगों को गर्म पानी की जरूरत होती है उन्हें गर्म पानी दिया जाता है। रात को पहरे पर लगे लोगों को जब कोई संदिग्ध व्यक्ति मिलता है तो वे उससे बहुत मानवीयता से पेश आते हैं उनसे संवाद करते हैं। यहाँ तक कि उन्हें खाना भी खिलाते हैं। कई लोग रास्ता भटके हुए भी जाते हैं। उन्हें भी खाना खिलाकर सही रास्ते पर पहुंचाया जाता है। यहाँ पर पुलिसकर्मियों को भी ससम्मान खाना दिया जाता है, कहते हैं कि वे भी किसानों के बेटेबेटियाँ हैं। यहाँ पर कई लोगों की रिश्तेदारियां निकल जाती हैं तो कई बरसों के बिछड़े दोस्त भी मिल जाते हैं। वे अपने पुराने दिनों को याद करते हुए रातें गुजारते हैं। कुछ युवा लंगर में सुबह की तैयारियां करके सोते हैं। वे दूध गर्म कड़ते हैं और सुबह के लिए दही जमाते हैं।

जब भोर होती है तो लोग फिर आग जला लेते हैं। मेरे अनुभव है कि मोर्चे पर शुरुआत से अभी तक किसी भी समय आग नहीं बुझी। वह कभी लंगर में तो कभी सड़क के किनारे जलती ही रहती है। लोगों के दिलों में जलने वाली आग का तो कहना ही क्या है। लोग अपने रोज़मर्रा के कामों में लग जाते हैं। इसी समय पूरब में वही सूरज फिर दिखता है जिसकी किरणों से हर तरफ उमंग फैल जाती है।

 

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