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फेक न्यूज: किसान आंदोलन को बदनाम करने की साज़िश

अखिल रंजन

एक तरफ जहाँ हज़ारों की संख्या में किसान नए कृषि कानूनों को वापस लिए जाने की मांग के साथ पिछले डेढ़ महीने से राजधानी को आती विभिन्न सड़को पर डेरा डाले हुए है, वही दूसरी तरफ सरकार और भाजपासमर्थक ताकतें इस आंदोलन को बदनाम करने की भरसक कोशिश में लगी हुई हैं। एक तरफ सरकार आंदोलनकारी किसान संगठनों के साथ बैठक पर बैठक करती रही तो दूसरी तरफ इन कानूनों के समर्थन में रातोंरात नए किसान संगठन बनते रहे। इस बीच मीडिया का बड़ा हिस्सा हर दिन इन कानूनों की गलतसही व्याख्या कर इसके फायदे गिनाता रहा है। इसके बाद भी प्रदर्शनकारी किसानों के मज़बूत इरादों के सामने सरकार का टालमटोल वाला रवैया कारगर नहीं हुआ और मामला अब सुप्रीम कोर्ट के सामने हैं। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने आननफानन में आगे बातचीत के लिए जो चारसदस्यीय समिति बनाई है उसमें से तीन लोग इन कानूनों के पक्षधर हैं। ऐसे में इन कानूनों को वापस लिए जाने की स्पष्ट मांग, सुप्रीम कोर्ट द्वारा प्रदर्शनरत किसान संगठनो की अवहेलना और इस समिति की निष्पक्षता को लेकर उठे सवालों के मद्देनज़र कहा जा सकता है कि यह आंदोलन अभी और लंबा चलने वाला है।

बहरहाल, इन सबके बीच पिछले डेढ़ महीने से इस आंदोलन को लेकर सोशल मीडिया पर फेक न्यूज़ की बाढ़ आई हुई है। फेसबुक, ट्विट्टर, इंस्टाग्राम और यूट्यूब के साथसाथ व्हाट्सएप्प पर सैकड़ों की तादाद में फर्जी फोटो और पुराने वीडियो शेयर किया जा रहा है, जिसका इस आंदोलन से दूरदूर तक कोई लेनादेना नहीं है। लेकिन ऐसे फर्जी और पुराने फोटो और वीडियो के सहारे इस आंदोलन को देशविरोधी, हिंदीविरोधी और खालिस्तानी षड़यंत्र घोषित करने की कोशिश ज़ोरों पर है। उदाहरण के तौर पर अमेरिका और इंग्लैंड के खालिस्तानसमर्थक रैलियों के कई सारे वीडियो इस आंदोलन से जोड़कर शेयर किए जा रहे हैं। ऐसे ही इस आंदोलन से जोड़कर एक वीडियो हज़ारों की संख्या में शेयर किया गया जिसमें कुछ लोग कश्मीर के आज़ादी समर्थन में और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विरोध में नारें लगा रहे हैं। लेकिन यह वीडियो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अमेरिका दौरे का है जब 2019 में कश्मीर से धारा 370 हटाने के तुरंत बाद वो संयुक्त राष्ट्र की आम सभा में भाग लेने न्यू यॉर्क शहर गए थे। ऐसे ही साल 2013 में लंदन में हुए एक भारतविरोधी प्रदर्शन का फोटो भी अभी इस  किसान आंदोलन से जोड़कर शेयर किया जा रहा है और दावा किया जा रहा है कि इस आंदोलन को भारतविरोधी और खालिस्तानसमर्थक ताकतों ने हाईजैक कर लिया है। इसके बाद अब पिछले हफ्ते से एक नया ट्रेंड शुरू हुआ है। पंजाब में हिंदीअंग्रेजी के विरोध और पंजाबी भाषा के समर्थन में हुए तीनचार साल पुराने प्रदर्शनों के फोटो और वीडियो अभी का बता कर इस दावे के साथ शेयर किया जा रहा है कि प्रदर्शनकारी सिख किसान अब हिंदी का विरोध करने लगे हैं। इस से मोबाईल नेटवर्क टावरों को गिराए जाने को लेकर बड़ी तादाद में कुछ फेक न्यूज़ शेयर हुआ था। 

हालांकि किसान आंदोलन के समर्थन में सोशल मीडिया फेक न्यूज़ शेयर हो रहा है, लेकिन उसमें किसी को बदमान करने या देशद्रोही बताने घोषित करने पर ज़्यादा ज़ोर नहीं है. उसके उलट, किसान आंदोलन के विरोध में शेयर हो रहे ज़्यादातर फेक न्यूज़ में सिख समुदाय को निशाना बनाया जा रहा है। यह ट्रेंड वैसे ही है जैसे सीएए और एनआरसी के खिलाफ चले विरोध प्रदर्शनों के दौरान मुस्लिम समुदाय को निशाना बनाया गया था। यह ट्रेंड कोरोना वायरस के चलते देशभर में लागू लॉकडाउन के समय भी देखने को मिला जब फर्जी फोटो और वीडियो के बल पर मुस्लिम समुदाय को एक बार फिर निशाना बनाया गया। ऐसे ही पाकिस्तान के बालाकोट में भारतीय सेना के द्वारा एयरस्ट्राइक के समय भी सरकार के समर्थन में बहुत सारे फेक न्यूज़ शेयर हुए थे।

इन सब बातों को गौर से देखा जाय तो यह साफ़ होता है कि फेक न्यूज़ का इस्तेमाल अब सिर्फ चुनाव के समय ही नहीं, बल्कि दबाव के वक्त में आम जनता का ध्यान भटकाने, किसी भी विरोधप्रदर्शन को कमज़ोर और बदनाम करने के लिए तथा सरकारविरोधी आंदोलन को देशविरोधी साबित करने के लिए खूब जोरशोर से किया जा रहा है। इन सब में एक और समानता यह है कि ऐसे फेक न्यूज़ शेयर करने वाले ज़्यादातर सोशल मीडिया अकाउंट, पेज या वेबसाइट प्रधानमंत्री मोदी, भाजपा या भाजपा के किसी अन्य नेता या फिर किसी हिन्दू संगठन के जुड़े होते हैं या उनका समर्थक होते है। यह बात ऐसे सोशल मीडिया पेज या अकाउंट के कवर फोटो या डिस्प्ले फोटो (डीपी) में देखने को मिल जाती है। ऐसे में फेसबुक, ट्विट्टर या किसी भी सोशल मीडिया पर शेयर की गई फोटो, वीडियो या कोई और जानकारी पर भरोसा करने और उसे आगे शेयर करने से पहले हमें उसकी सच्चाई का पता लगाने की कोशिश अवश्य करनी चाहिए।

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